स्थापत्य शास्त्र-१ : नगर रचना के श्रेष्ठतम उदाहरण

लेखक - सुरेश सोनी

हमारे यहां स्थापत्य शास्त्र की परिधि काफी व्यापक रही है। इसमें नगर रचना, भवन, मन्दिर, मूर्तियां, चित्रकला- सब कुछ आता था। नगरों में सड़कें, जल-प्रदाय व्यवस्था, सार्वजनिक सुविधा हेतु स्नानघर, नालियां, भवन के आकार-प्रकार, उनकी दिशा, माप, भूमि के प्रकार, निर्माण में काम आने वाली वस्तुओं की प्रकृति आदि का विचार किया गया था और यह सब प्रकृति से सुसंगत हो, यह भी देखा जाता था। जल प्रदाय व्यवस्था में बांध, कुआं, बावड़ी, नहरें, नदी आदि का भी विचार होता था।

किसी भी प्रकार के निर्माण हेतु शिल्प शास्त्रों में विस्तार से विचार किया गया है। हजारों वर्ष पूर्व वे कितनी बारीकी से विचार करते थे, इसका भी ज्ञान होता है। शिल्प कार्य के लिए मिट्टी, एंटें, चूना, पत्थर, लकड़ी, धातु तथा रत्नों का उपयोग किया जाता था। इनका प्रयोग करते समय कहा जाता था कि इनमें से प्रत्येक वस्तु का ठीक से परीक्षण कर उनका निर्माण में आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए। परीक्षण हेतु वह माप कितने वैज्ञानिक थे, इसकी कल्पना हमें निम्न उद्धरण से आ सकती है-

महर्षि भृगु कहते हैं कि निर्माण उपयोगी प्रत्येक वस्तु का परीक्षण निम्न मापदंडों पर करना चाहिए।

वर्णलिंगवयोवस्था: परोक्ष्यं च बलाबलं।
यथायोग्यं, यथाशक्ति: संस्कारान्कारयेत्‌ सुधी:॥
(भृगु संहिता)

अर्थात्‌ वस्तु का वर्ण (रंग), लिंग (गुण, चिन्ह), आयु (रोपण काल से आज तक) अवस्था (काल खंड के परिणाम) तथा इन सबके कारण वस्तु की ताकत देखकर उस पर जो खिंचाव पड़ेगा, उसे देख-परखकर यथोचित रूप में सभी संस्कारों को करना चाहिए।

इनमें वर्ण का अर्थ रंग है। पर शिल्प शास्त्र में इसका उपयोग प्रकाश को परावृत करता है। अत: इसे उत्तम वर्ण कहा गया।

निर्माण के संदर्भ में अनेक प्राचीन ऋषियों के शास्त्र मिलते हैं, जैसे-

(१) विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र-इसमें विश्वकर्मा निर्माण के संदर्भ में प्रथम बात बताते हैं- ‘पूर्व भूमिं परिक्ष्येत पश्चात्‌ वास्तु प्रकल्पयेत्‌‘ अर्थात्‌ पहले भूमि परीक्षण कर फिर वहां निर्माण करना चाहिए। इस शास्त्र में विश्वकर्मा आगे कहते हैं उस भूमि में निर्माण नहीं करना चाहिए जो बहुत पहाड़ी हो, जहां भूमि में बड़ी-बड़ी दरारें हों आदि।

(२) काश्यप शिल्प-इसमें कश्यप ऋषि कहते हैं नींव तब तक खोदनी चाहिए जब तक जल न दिखे, क्योंकि इसके बाद चट्टानें आती हैं।

(३) भृगु संहिता-इसमें भृगु कहते हैं कि जमीन खरीदने के पहले भूमि का पांच प्रकार अर्थात्‌ रूप, रंग, रस, गन्ध और स्पर्श से परीक्षण करना चाहिए। वे इसकी विधि भी बताते हैं।

इसके अतिरिक्त भवन निर्माण में आधार के हिसाब से दीवारें, उनकी मोटाई, उसकी आन्तरिक व्यवस्था आदि का भी विस्तार से वर्णन मिलता है। इस ज्ञान के आधार पर हुए निर्माणों के अवशेष सदियां बीतने के बाद भी अपनी कहानी कहते हैं, जिसके कुछ निम्नानुसार हैं-

मोहनजोदड़ो (सिंध)-पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त ईसा से ३००० वर्ष पूर्व के नगर मोहनजोदड़ो की रचना देखकर आश्चर्य होता है। अत्यंत सुव्यवस्थित ढंग से बसा हुआ है यह नगर मानो उसके भवन तथा सड़कें - सब रेखागणितीय माप के साथ बनाए गए थे। इस नगर में मिली सड़कें एकदम सीधी थीं तथा पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण बनी हुई थीं। दूसरी आश्चर्य की बात यह कि ये एक-दूसरे से ९० अंश के कोण पर थीं।

भवन निर्माण अनुपात में था। एंटों के जोड़, दीवारों की ऊंचाइयां बराबर थीं। भोजनालय, स्नानघर रहने के कमरे आदि की उचित व्यवस्था थी। नगर में रिहायशी भवन, बगीचे, सार्वजनिक भवन के साथ ही बहुत बड़ा सार्वजनिक स्नानागार भी मिला था, जो ११.८२ मीटर लम्बा, ७.०१ मी. चौड़ा तथा २.४४ मीटर ऊंचा है, जिसमें पानी हेतु दो धाराएं थीं। दूसरी बात, दीवारों में एंटों पर ऐसा पदार्थ लगा था जिस पर पानी का असर न हो। इस नगर को देखकर ध्यान में आता है कि नगर को बसाने वाले निर्माण शास्त्र में बहुत पारंगत थे।

(२) द्वारका- इसी प्रकार डा. एस.आर.राव ने पुरातात्विक उत्खनन में द्वारका को खोजा और वहां जो पुरावशेष मिले वे बताते हैं कि द्वारका नगर भी सुव्यवस्थित बसा था। नगर के चारों ओर दीवार थी। भवन निर्माण जिन पत्थरों से होता था उनका समुद्री पानी में क्षरण नहीं होता था। दो मंजिले भवन, सड़कें तथा पानी की व्यवस्था वहां दृष्टिगोचर होती है। इस खुदाई में तांबा, पीतल व कुछ मिश्र धातुएं प्राप्त हुई हैं जिनमें जस्ता ३४ प्रतिशत तक मिश्रित है। निर्माण में आने वाले स्तंभ, खिड़कियों के पट आदि का माप व आकार पूर्ण गणितीय ढंग से था।

(३) लोथल बंदरगाह (सौराष्ट्र)-ईसा से २५०० वर्ष पूर्व लोथल का बंदरगाह बनाया गया, जहां छोटी नावें ही नहीं अपितु बड़े-बड़े जहाज भी रुका करते थे। यहां बंदरगाह होने के कारण एक बड़ा शहर भी बसा था। इसकी रचना लगभग मोहनजोदड़ो, हड़प्पा जैसी ही थी। सड़कें, भवन, बगीचे, सार्वजनिक उपयोग के भवन आदि थे। दूसरे, यहां श्मशान शहरी बस्ती से दूर बनाया गया था।

लोथल बंदरगाह ३०० मीटर उत्तर-दक्षिण तथा ४०० मीटर पूर्व-पश्चिम था और बाढ़, तूफान रोकने हेतु १३ मीटर की दीवार एंट, मिट्टी आदि की बनी थी। यह बंदरगाह बाद के काल बने में फोनेशियन और रोमन बंदरगाहों से बहुत विकसित था।

(४) वाराणसी-क्लॉड वेटली ने भारतीय शिल्प के बारे में लिखा है कि भारत की महान शिल्प विरासत की उपेक्षा की गयी है। बहुत सारी आधुनिक इमारतें भव्यता के बाद भी भारत को आबोहवा, मानसूनी हवाओं, जलवृष्टि और लंबरूप सूर्य के प्रकाश के कारण प्रतिकूल हैं।

भारत के परम्परागत वास्तु शिल्प की आवश्यक बातें पत्थर की कुर्सी, मोटी दीवारें, खिड़कियों का फर्स की ओर झुकाव, जिससे हवा का आगम-निर्गम (सरकुलेशन) उन्मुक्त रहे, भीतरी आंगन, तलघर, टेरेसनुमा छप्पर का निर्माण प्रचलित रहे हैं। भारतीय वास्तु शिल्प में इन बातों का ध्यान समुदाय की सुविधाओं और वृद्धिशील स्वास्थ्य के मद्देनजर रखा गया। वाराणसी विश्व का पहला नियोजित नगर माना गया है। प्राचीन भारत में जलशक्ति अभियांत्रिकी के विद्वान प्रो. भीमचन्द्र चटर्जी भारत के जल अभियांत्रिकी विज्ञान के बारे में लिखते हैं कि अयोध्या की राज्य परम्परा की चार पीढ़ियां अनवरत हिमालय से गंगा को लाने के लिए समर्पित रहीं और महान भगीरथ गंगा अवतरण में सफल हुए। गंगा का प्रवाह बंगाल की खाड़ी की ओर प्रवर्तित किया गया। वाराणसी के सामने गंगा को घुमाव दिया गया। यहां यह उत्तरामुखी होती है और इसकी दो शाखाएं होती हैं- वरुणा और असी। इनका जल पोषण गंगा ने किया। ऐसे घनत्व के स्थान जहां बाढ़ में जलागम बढ़ने पर अति जलागार को दूर प्रवाहित किया जा सके। बाढ़ रोकने का ऐसा अप्रतिम उदाहरण दूसरा नहीं।

(५) नगर नियोजन की नौ आवश्यक बातें (नवागम नगरम्‌ प्राहु:)

१. जलापूर्ति- पेयजल, जल-मल की शुद्धि।

२. मंडप-यात्रियों के लिए विश्रामालय, धर्मशालाएं, अतिथि गृह।

३. हाट-उपभोक्ता सामग्री क्रय-विक्रय स्थल।

४. दांडिक और पुलिस- अपराध अनुसंधान, दंड विधान की व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अराजक तत्वों से सुरक्षा।

५. बगीचा उद्यान- बाग-बगीचा, आमोद-प्रमोद और शिक्षा संस्थाओं के लिए।

६. आबादी- आवासीय व्यवस्था, कार्यशालाएं, कल कारखाने।

७. श्मशान- अन्तेष्टि स्थल और अस्थि विसर्जन की व्यवस्था।

८. स्वास्थ्य- अस्पताल, स्वास्थ्य निदान केन्द्र।

९. मन्दिर- देवी-देवता स्थल, सभी मतावलंबियों की सुविधा, समागम स्थल, सार्वजनिक समारोह।

(६) प्राचीन भारत में नगर नियोजन का दुर्लभ उदाहरण- कांजीवरम्‌ नगर नियोजन का अनुपम उदाहरण है। विश्व के नगर नियोजन विज्ञानी कांजीवरम्‌ का नियोजन देखकर दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। प्राचीन भारत में दक्षिण के नगर नियोजन के विशिष्ट वैभव के विषय में सी.पी.वेंकटराम अय्यर ने १९१६ में लिखा है कि प्राचीन नगर कांजीवरम्‌ परम्परागत श्रेष्ठ नगर नियोजन का एक दुर्लभ नमूना है। प्रोफेसर गेडेड ने इसे नगर नियोजन के भारत के चिन्तन और नागरिक सोच का उत्कर्ष कहा है और उसकी भूरि-भूरि सराहना की है। यहां अनुकूल आराम, कामकाजी दक्षता के अनुरूप नगर नियोजन ने प्रो.गेडेड की अत्यंत प्रभावित किया है। यह प्राचीन भारत में नगर नियोजन का ठोस सबूत है। प्रोफेसर गेडेड के विचार से नगर की योजना की यह उत्कृष्ट सोच है। नागरिक सोच की जितनी उत्कृष्ट कल्पना हो सकती है, शिल्पियों ने यहां उसे मूर्त रूप दिया है। उन्होंने मौलिक रूप से मन्दिरों के नगर को बहुत ही विलक्षण कल्पना से संवारा है। नगर को मंदिरों से मात्र आकार ही नहीं दिया गया है अपितु अनेक दृष्टियों से यह छोटी-छोटी बातों में समृद्ध है, जो आनंदित करता है। यहां समुदायों का अलग-अलग सपना साकार होता है। मानव की कल्पना तथा व्यवहार की गरिमा मूर्तरूप होती है। साथ ही व्यक्तिगत कलाकार को अपनी सुरुचिपूर्ण स्वायत्तता सुलभ है। अन्यत्र कहीं भी, यहां तक कि दुनिया के समृद्धतम नगरों में भी यह दुर्लभ है।

सेंट एम्ड्रयूज से ईडन, लिंकन से न्यूयार्क, आक्सफोर्ड से सेल्सबरी, एक्सेला चोपेले से कोलोग और फ्र्ीबर्ग रोबर से नाइम्स तक इसके विपरीत परिस्थितियां दृष्टिगोचर होती हैं। वहां नगर नियोजन के मामले में सम्यक्‌ बोध का अभाव और गिरावट है। झुग्गी-झोपड़ियों की बसावट है। इस सब विकृति से भारतीय नगर नियोजन कल्पना का मुक्त होना भारत के वास्तुवैभव, शिल्प की श्रेष्ठता और नगर नियोजन की समृद्धि का प्रमाण है।

(क्रमश:)