कृषि में हमेशा ही अग्रणी रहा है भारत


लेखक - सुरेश सोनी

उदयपुर कृषि विश्वविद्यालय में एक वाक्य लिखा है-

‘हल की नोक से खींची रेखा मानव इतिहास में जंगलीपन और सभ्यता के बीच की विभाजक रेखा है।‘

विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में कृषि का गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है।

अक्षैर्मा दीव्य: कृषिमित्‌ कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमान:। ऋग्वेद- ३४-१३

अर्थात्‌ जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ धन पाओ।

कृषिर्धन्या कृषिर्मेध्या जन्तूनां जीवनं कृषि:।

(कृषि पाराशर-श्लोक-८)

अर्थात्‌ कृषि सम्पत्ति और मेधा प्रदान करती है और कृषि ही मानव जीवन का आधार है।

वैदिक काल में ही बीजवपन, कटाई आदि क्रियाएं, हल, हंसिया, चलनी आदि उपकरण तथा गेहूं, धान, जौ आदि अनेक धान्यों का उत्पादन होता था। चक्रीय परती के द्वारा मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने की परम्परा के निर्माण का श्रेय उस समय के कृषकों को जाता है। यूरोपीय वनस्पति विज्ञान के जनक रोम्सबर्ग के अनुसार इस पद्धति को पश्चिम ने बाद के दिनों में अपनाया।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में मौर्य राजाओं के काल में कृषि, कृषि उत्पादन आदि को बढ़ावा देने हेतु कृषि अधिकारी की नियुक्ति का वर्णन मिलता है।

कृषि हेतु सिंचाई की व्यवस्था विकसित की गई। यूनानी यात्री मेगस्थनीज ने लिखा है कि मुख्य नाले और उसकी शाखाओं में जल के समान वितरण को निश्चित करने व नदी और कुओं के निरीक्षण के लिए राजा द्वारा अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी।

कृषि के संदर्भ में नारदस्मृति, विष्णु धर्मोत्तर, अग्नि पुराण आदि में उल्लेख मिलते हैं। कृषि पाराशर, कृषि के संदर्भ में एक संदर्भ ग्रंथ बन गया। इस ग्रंथ में कुछ विशेष बातें कृषि के संदर्भ में कही गई हैं।

जुताई- इसमें कितने क्षेत्र की जुताई करना, उस हेतु हल, उसके अंक आदि का वर्णन है। इसी प्रकार जोतने वाले बैल, उनका रंग, प्रकृति तथा कृषि कार्य करवाते समय उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखने का वर्णन भी इस ग्रंथ में मिलता है।

वर्षा के बारे में भविष्यवाणी- प्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण, ग्रहों की गति तथा प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों का गहरा अभ्यास प्राचीन काल के व्यक्तियों ने किया था, उसी आधार पर वे वर्षा की भविष्यवाणियां करते थे।

जिस वर्ष में जो ग्रह प्रमुखता में रहेगा उस आधार पर क्या-क्या परिणाम होते हैं, इसका वर्णन करते हुए पाराशर ऋषि कहते हैं-

‘जिस वर्ष सूर्य अधिपति होगा उस वर्ष में वर्षा कम होगी और मानवों को कष्ट सहन करना पड़ेगा। जिस वर्ष का अधिपति चन्द्र होगा, उस वर्ष अच्छी वर्षा और वनस्पति की वृद्धि होगी। लोग स्वस्थ रहेंगे। उसी प्रकार बुध, बृहस्पति और शुक्र की वर्षाधिपति होने पर भी स्थिति ठीक रहेगी। परन्तु जिस वर्ष शनि वर्षाधिपति होगा, हर जगह विपत्ति होगी।‘

जुताई का समय-नक्षत्र तथा काल के निरीक्षण के आधार पर जुताई के लिए कौन-सा समय उपयुक्त रहेगा, इसका निर्धारण उन्होंने किया।

बीजवपन- उत्तम बीज संग्रह हेतु पाराशर ऋषि, गर्ग ऋषि का मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि बीज को माघ (जनवरी-फरवरी) या फाल्गुन (फरवरी-मार्च) माह में संग्रहित करके धूप में सुखाना चाहिए तथा उन बीजों को बाद में अच्छी और सुरक्षित जगह रखना चाहिए।

वर्षा मापन- ‘कृषि पाराशर‘ में वर्षा को मापने का भी वर्णन मिलता है।

अथ जलाढक निर्णय:
शतयोजनविस्तीर्णं त्रिंशद्योजनमुच्छ्रितम्‌।
अढकस्य भवेन्मानं मुनिभि: परिकीर्तितम्‌॥
(कृषि पाराशर)

अर्थात्‌- पूर्व में ऋषियों ने वर्षा को मापने का पैमाना तय किया है। अढक यानी सौ योजन विस्तीर्ण तथा ३०० योजन ऊंचाई में वर्षा के पानी की मात्रा।

योजन उ १ अंगुली की चौड़ाई
१ द्रोण उ ४ अढक उ ६.४ से.मी.
आजकल का वर्षा मापन भी इतना ही आता है।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में द्रोण के आधार पर वर्षा मापने का उल्लेख तथा देश में कहां-कहां कितनी वर्षा होती है, इसका भी उल्लेख मिलता है।

उपरोपण (ग्राफ्टिंग)- वराहमिहिर अपनी बृहत्‌ संहिता में उपरोपण की दो विधियां बताते हैं।

थ् जड़ से पेड़ को काटना और दूसरे को तने (द्यद्धद्वदत्त्) से काटकर सन्निविष्ट (क्ष्दद्मड्ढद्धद्य) करना।

थ् क्ष्दद्मड्ढद्धद्यत्दढ़ द्यण्ड्ढ ड़द्वद्यद्यत्दढ़ दृढ ठ्ठ द्यद्धड्ढड्ढ त्दद्यदृ द्यण्ड्ढ द्मद्यड्ढथ्र् दृढ ठ्ठददृद्यण्ड्ढद्ध जहां दोनों जुड़ेंगे, वहां मिट्टी और गोबर से उनको बंद कर आच्छादित करना।

इसी के साथ वराहमिहिर किस मौसम में किस प्रकार के पौधे की उपरोपण (ग्राफ्टिंग) करना, इसका भी उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं-

शिशिर ऋतु (फरवरी-मार्च) में उन पौधों का उपरोपण करना चाहिए जिनकी शाखाएं नहीं हैं।

हेमन्त ऋतु (दिसम्बर-जनवरी) तथा शरद ऋतु (अगस्त-सितम्बर) में उनका उपरोपण करना चाहिए जिनकी शाखाएं बहुत हैं।

किस मौसम में कितना पानी प्रतिरोपण किए पौधों को देना, इसका उल्लेख करते हुए वराहमिहिर कहते हैं ‘गरमी में प्रतिरोपण किए पौधे को प्रतिदिन सुबह तथा शाम को पानी दिया जाए। शीत ऋतु में एक दिन छोड़कर तथा वर्षाकाल में जब-जब मिट्टी सूखी हो।‘

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन काल से भारत में कृषि एक विज्ञान के रूप में विकसित हुई। जिसके कारण हजारों वर्ष बीतने के बाद भी हमारे यहां भूमि की उर्वरा शक्ति अक्षुण्ण बनी रही, जबकि कुछ दशाब्दियों में ही अमरीका में लाखों हेक्टेयर भूमि बंजर हो गई है।

भारतीय कृषि पद्धति की विशेषता एवं इसके उपकरणों का जो प्रशंसापूर्ण उल्लेख अंग्रेजों द्वारा किया गया, उसका उल्लेख श्री धर्मपाल की पुस्तक ‘इन्डियन साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी इन दी एटीन्थ सेन्चुरी‘ में दिया गया है। उस समय भारत कृषि के सुविकसित साधनों में दुनिया में अग्रणी था। कृषि क्षेत्र में पंक्ति में बोने के तरीके को इस क्षेत्र में बहुत कुशल और उपयोगी अनुसंधान माना जाता है। आस्ट्रिया में इसका प्रयोग सन्‌ १६६२ तथा इंग्लैण्ड में १७३० में हुआ। हालांकि इसका व्यापक प्रचार-प्रसार वहां इसके ५० वर्ष बाद हो पाया। पर मेजर जनरल अलेक्झेंडर वाकर के अनुसार पंक्ति में बोने का प्रयोग भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से ही होता आया है। थॉमस राल्काट ने १७९७ में इंग्लैण्ड के कृषि बोर्ड को लिखे एक पत्र में बताया कि, भारत में इसका प्रयोग प्राचीन काल से होता रहा है। उसने बोर्ड को पंक्तियुक्त हलों के तीन सेट लन्दन भेजे ताकि इन हलों की नकल अंग्रेज कर सकें, क्योंकि ये अंग्रेजी हलों की अपेक्षा अधिक उपयोगी और सस्ते थे।

भारतीय कृषि पद्धति की सराहना करते हुए सर वाकर लिखते हैं- ‘भारत में शायद विश्व के किसी भी देश से अधिक किस्मों का अनाज बोया जाता है और तरह-तरह की पौष्टिक जड़ों वाली फसलों का भी यहां प्रचलन है। मेरी समझ में नहीं आता कि हम भारत को क्या दे सकते हैं, क्योंकि जो खाद्यान्न हमारे यहां हैं, वे तो वहां हैं ही, और भी अनेक विशेष प्रकार के अन्न वहां हैं।