विमानशास्त्र का भारतीय इतिहास-२

महर्षि शौनक आकाश मार्ग का पांच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा धुण्डीनाथ विभिन्न मार्गों की ऊंचाई पर विभिन्न आवर्त्त दृद्ध ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म का उल्लेख करते हैं और उस-उस ऊंचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊंचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहां कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।

आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है-

(१) रेखा पथ- शक्त्यावृत-
ध्र्ण्त्द्धथ्द्रदृदृथ्द्म दृढ ड्ढदड्ढद्धढ़न्र्‌

(२) मंडलपथ - वातावृत्त-
ज़्त्दड्ड

(३) कक्ष पथ - किरणावृत्त-
च्दृथ्ठ्ठद्ध द्धठ्ठन्र्द्म

(४) शक्ति पथ - सत्यावृत्त-
क्दृथ्ड्ड ड़द्वद्धद्धड्ढदद्य

(५) केन्द्र पथ - घर्षणावृत्त-
क्दृथ्थ्त्द्मत्दृद

वैमानिक का खाद्य-इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो, इसका वर्णन है। उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज तो विमान उतरने की जगह निश्चित है पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे। अत: युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया है जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है।

एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गई है कि वैमानिक को खाली पेट विमान नहीं उड़ाना चाहिए। इस संदर्भ में बंगलोर के श्री एम.पी. राव बताते हैं कि भारतीय वायुसेना में सुबह जब फाइटर प्लेन को वैमानिक उड़ाते थे तो कभी-कभी दुर्घटना हो जाती थी। इसका विश्लेषण होने पर ध्यान में आया की वैमानिक खाली पेट विमान उड़ाते हैं तब ऐसा होता है। अत: १९८१ में वायु सेना में खाना देने की व्यवस्था शुरू की।

विमान के यंत्र- विमान शास्त्र में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है? इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है-

(१) विश्व क्रिया दर्पण-इस यंत्र के द्वारा विमान के आस-पास चलने वाली गति-विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक (ग्त्ड़ठ्ठ) तथा पारा (थ्र्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌) आदि का प्रयोग होता था।

(२) परिवेष क्रिया यंत्र- इसमें स्वचालित यंत्र वैमानिक (ॠद्वद्यदृ घ्त्थ्दृद्य द्मन्र्द्मद्यड्ढथ्र्‌) का वर्णन है।

(३) शब्दाकर्षण यंत्र- इस यंत्र के द्वारा २६ कि.मी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था।

(४) गुह गर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती थी।

(५) शक्त्याकर्षण यंत्र- विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और वह उष्णता वातावरण में छोड़ना।

(६) दिशा दर्शी यंत्र- दिशा दिखाने वाला यंत्र।

(७) वक्र प्रसारण यंत्र-इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।

(८) अपस्मार यंत्र- युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।

(९) तमोगर्भ यंत्र-इस यंत्र के द्वारा युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। इनके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।

उर्जा स्रोत- विमान को चलाने के लिए चार प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का महर्षि भारद्वाज उल्लेख करते हैं। (१) वनस्पति तेल, जो पेट्रोल की भांति काम करता है। (२) पारे की भाप (ग्ड्ढद्धड़द्वद्धन्र्‌ ध्ठ्ठद्रदृद्वद्ध) प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किये जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमरीका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह ऊपर गया, तब विस्फोट हो गया। परन्तु यह तो सिद्ध हुआ कि पारे की भाप का ऊर्जा के रूप में उपयोग किया जा सकता है। आवश्यकता अधिक निर्दोष प्रयोग करने की है। (३) सौर ऊर्जा-इसके द्वारा भी विमान चलता था। (४) वातावरण की ऊर्जा- बिना किसी अन्य साधन के सीधे वातावरण से शक्ति ग्रहण कर विमान, उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरती है उसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। अमरीका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं। यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापक विचार हुआ था।

विमान के प्रकार- विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते है। मंत्रिका प्रकार के विमान, जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी, वह सतयुग और त्रेता युग में संभव था। इसमें २५ प्रकार के विमान का उल्लेख है। द्वापर युग में तांत्रिका प्रकार के विमान थे। इनके ५६ प्रकार बताये गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे, इनके २५ प्रकार बताये गए हैं। इनमें शकुन, रूक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे।

उपर्युक्त वर्णन पढ़ने पर कुछ समस्याएं व प्रश्न हमारे सामने आकर खड़े होते हैं। समस्या यह कि आज के विज्ञान की शब्दावली व नियमावली से हम परिचित हैं, परन्तु प्राचीन विज्ञान, जो संस्कृत में अभिव्यक्त हुआ, उसकी शब्दावली, उनका अर्थ तथा नियमावली हम जानते नहीं। अत: उसमें निहित रहस्य को अनावृत (क़्ड्ढड़दृड्डड्ढ) करना पड़ेगा। दूसरा, प्राचीनकाल में गलत व्यक्ति के हाथ में विद्या न जाए, इस हेतु बात को अप्रत्यक्ष ढंग से, गूढ़ रूप में, अलंकारिक रूप में कहने की पद्धति थी। अत: उसको भी समझने के लिए ऐसे लोगों के इस विषय में आगे प्रयत्न करने की आवश्यकता है, जो संस्कृत भी जानते हों तथा विज्ञान भी जानते हों।

विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं
दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या विमान शास्त्र ग्रंथ का कोई भाग ऐसा है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके। यदि ऐसा कोई भाग है तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं? क्या उनमें कुछ सफलता मिली है?

सौभाग्य से उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर हां में दिए जा सकते हैं। हैदराबाद के डा. श्रीराम प्रभु ने वैमानिक शास्त्र ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा, तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में से कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने हेतु लगने वाली मिश्र धातुओं को बनाने की जो विधि लोहाधिकरण में दी गई है, उनके अनुसार मिश्र धातुओं का निर्माण संभव है या नहीं, इस हेतु प्रयोग करने का विचार उनके मन में आया। प्रयोग हेतु डा. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी.एम.बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातु, दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प लिया और उनके परिणाम आशास्पद हैं। अपने प्रयोगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में सफलता उन्हें मिली है। इडद्ध/ऊ
प्रथम धातु है तमोगर्भ लौह। विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान को अदृश्य करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्युरिक एसिड में भी नहीं गलती।

दूसरी धातु जो बनाई है उसका नाम है पंच लौह। यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर और भारी है। तांबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है जबकि अमरीका में भी अमरीकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ट मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत तक संभव है, यह माना है। इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु अनोखी है।

तीसरी धातु है आरर। यह तांबा आधारित मिश्र धातु है जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है। इस धातु में ङड्ढद्मत्द्मद्यठ्ठदड़ड्ढ द्यदृ थ्र्दृत्द्मद्यद्वद्धड्ढ का गुण है। बी.एम. बिरला साइंस सेन्टर (हैदराबाद) के डायरेक्टर डा. बी.जी. सिद्धार्थ ने इन धातुओं को बनाने में सफलता की जानकारी १८ जुलाई, १९९१ को एक पत्रकार परिषद्‌ में देते हुए बताया कि इन धातुओं को बनाने में खनिजों के साथ विभिन्न औषधियां, पत्ते, गौंद, पेड़ की छाल आदि का भी उपयोग होता है। इस कारण जहां इनकी लागत कम आती है, वहीं कुछ विशेष गुण भी उत्पन्न होते हैं। उन्होंने कहा कि ग्रंथ में वर्णित अन्य धातुओं का निर्माण और उस हेतु आवश्यक साधनों की दिशा में देश के नीति निर्धारक सोचेगें तो यह देश के भविष्य के विकास की दृष्टि से अच्छा होगा। उपर्युक्त पत्रकार परिषद्‌ को ‘वार्ता‘ न्यूज एजेन्सी ने जारी किया तथा म.प्र. के नई दुनिया, एम.पी.क्रानिकल सहित देश के अनेक समाचार पत्रों में १९ जुलाई को यह प्रकाशित हुए।

इसी प्रकार आई.आई.टी. (मुम्बई) के रसायन शास्त्र विभाग के. डा. माहेश्वर शेरोन ने भी इस ग्रंथ में वर्णित तीन पदार्थों को बनाने का प्रयत्न किया। ये थे चुम्बकमणि, जो गुहगर्भ यंत्र में काम आती है और उसमें परावर्तन (रिफ्लेक्शन) को अधिगृहीत (कैप्चर) करने का गुण है। पराग्रंधिक द्रव-यह एक प्रकार का एसिड है, जो चुम्बकमणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है।

इसी प्रकार महर्षि भरद्वाज कृत अंशुबोधनी ग्रंथ में विभिन्न प्रकार की धातु तथा दर्पणों का वर्णन है। इस पर वाराणसी के हरिश्चंद्र पी.जी. कालेज के रीडर डा. एन.जी. डोंगरे ने क्ष्दड्डत्ठ्ठद ग़्ठ्ठद्यत्दृदठ्ठथ्‌ च्ड़त्ड्ढदड़ड्ढ ॠड़ठ्ठड्डड्ढर्थ्न्र्‌ के सहयोग से एक प्रकल्प लिया। प्रकल्प का नाम था च्ण्ड्र्ढ द्मद्यद्वड्डन्र्‌ दृढ ध्ठ्ठद्धत्दृद्वद्म थ्र्ठ्ठद्यड्ढद्धत्ठ्ठथ्द्म ड्डड्ढद्मड़द्धत्डड्ढड्ड त्द ॠथ्र्द्मद्वडदृड्डण्त्दत्‌ दृढ ग्ठ्ठण्ठ्ठद्धद्मण्त्‌ एण्ठ्ठद्धठ्ठड्डध्र्ठ्ठत्र्ठ्ठ.

इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भरद्वाज वर्णित दर्पण को बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जीकल लेबोरेटरी (जमशेदपुर) में किया तथा वहां के निदेशक पी.रामचन्द्र राव, जो आजकल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की, जिसका नाम प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह है। इसकी विशेषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्र्ारेड प्रकाश को जाने देता है। इसका निर्माण इनसे होता है-

कचर लौह- च्त्थ्त्ड़ठ्ठ
भूचक्र सुरमित्रादिक्षर- ख्र्त्थ्र्ड्ढ
अयस्कान्त- ख्र्दृड्डड्ढद्मद्यदृदड्ढ
रुरुक- क़्ड्ढड्ढद्धडदृदड्ढ ठ्ठद्मण्‌

इनके द्वारा अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया। प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन हाइग्रोस्कोपिक है। हाइग्रोस्कोपिक इन्फ्र्ारेड वाले कांचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश हट जाता है और वे बेकार हो जाते हैं। आजकल क्ठ्ठक़२ यह बहुत अधिक हाईग्रोस्कोपिक है। अत: इनके यंत्रों के प्रयोग में बहुत सावधानी रखनी पड़ती है जबकि प्रकाश स्तंभन भिद्‌ लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्र्ारेड सिग्नल्स में (२ द्यदृ ५छ) (१थ्र्उ१०-४क्थ्र्‌) तक की रेंज में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महर्षि भरद्वाज प्रणीत ग्रंथ के विभिन्न अध्यायों में से एक अध्याय पर हुए कुछ प्रयोगों की सत्यता यह विश्वास दिलाती है कि यदि एक ग्रंथ का एक अध्याय ठीक है तो अन्य अध्याय भी ठीक होंगे और प्राचीनकाल में विमान विद्या कपोल-कल्पना न होकर एक यथार्थ थी। इसका विश्वास दिलाती है। यह विश्वास सार्थक करने हेतु इस पुस्तक के अन्य अध्याय अपनी सत्यता की सिद्धि हेतु साहसी संशोधकों की राह देख रहे हैं।