डा. ओम प्रभात अग्रवाल
(सेवानिवृत्त अध्यक्ष, रसायन शास्त्र विभाग, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक हरियाणा)
इस श्रृंखला के दूसरे खंड में प्राचीन भारत के रसायनज्ञों के विभिन्न तत्वों के परमाणुओं के मध्य स्थापित हो जाने वाली रासायनिक बंधता के ज्ञान पर प्रकाश डाला गया। साथ ही, प्रायोगिक रसायन में काम आने वाले उपकरणों तथा उस काल में भारतीयों के धातुकर्म कौशल की भी चर्चा की गई। अब इस अंतिम खंड में तत्कालीन रसायनशास्त्र के शेष अन्य पक्षों पर विचार विमर्श करना समीचीन रहेगा।
रसार्णव नामक ग्रंथ में विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं में प्रयुक्त होने वाले तत्कालीन उत्प्रेरकों, रासायनिक अभिक्रियाओं को तीव्रता प्रदान करने वाले पदार्थ जिनमें से अधिकांश वानस्पतिक श्रोतों से प्राप्त किये जाते थे, का उल्लेख है। इसी ग्रंथ में कॉपर सल्फाइड, मैगनीज डाइऑक्साइड, कॉपर कार्बोनेट आदि यौगिकों के रंग, प्रकृति एवं उनके द्वारा दी जाने वाली लौ के वर्ण आदि की भी सटीक एवं आधुनिक ज्ञान के संगत जानकारी है। रस रत्नाकर में वनस्पतियों से कई प्रकार के अम्ल और क्षार की प्राप्ति की भी विधियां वर्णित हैं।
पेड़-पौधों का रस
अधिकतर आयुर्वेद औषधियां वानस्पतिक श्रोतों अथवा धातुओं से विरचित होती है। इसके लिए चरक ने जहां पेड़-पौधों के रस प्राप्त करने के लिए उन्हें उबालने, आसवन एवं निक्षालन प्रक्रमों को विस्तार से बताया है, वहीं धातुओं की भस्मों (आक्साइड) अथवा माक्षिकों (सल्फाइड) आदि को तैयार करने की विधियों का भी सांगोपांग वर्णन किया है। अत्यंत रोचक बात तो यह है कि भिन्न-भिन्न क्रियाओं के लिए उपयुक्त भिन्न ताप उत्पन्न करने के लिए अलग-अलग वृक्षों की लकड़ियों के उपयोग का विधान किया गया है।
आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में गंधक का विशेष महत्व है। यह बहुधा प्रकृति में मुक्त अवस्था में उपलब्ध होता है। यद्यपि संयुक्त अवस्था में भी सल्फाइड एवं सल्फेट के रूप में इसके भंडार मिलते हैं। संस्कृत साहित्य में गंधक के तीन प्रकार बताए गए हैं। यद्यपि केवल एक पीला गंधक ही आज के रासायनिक ज्ञान में फिट बैठता है। विभिन्न श्रोतों से प्राप्त गंधक के शुद्धिकरण की जो प्रक्रिया रसार्णव में वर्णित है वह आज के फ्र्ाश एवं ली ब्लांश विधियों से काफी सीमा तक मिलती जुलती है। रसजलनिधि ग्रंथ में तो शुद्ध अवस्था में गंधक प्राप्त करने की चार विधियां बताई गई हैं।
धातुओं से शीघ्र संयुक्त हो जाने की प्रकृति के कारण ही गंधक को रसजलनिधि में शुल्वारि अथवा धातुओं का शत्रु कहा गया है।
धातु मिश्रणन
प्राचीन भारतीय रसायनज्ञों को धातु मिश्रणन का भी ज्ञान था। यह छांदोग्य उपनिषद के इस कथन से सिद्ध होता है कि स्वर्ण जोड़ने के लिए सुहागा, चांदी के लिए स्वर्ण एवं वंग के लिए सीसा का प्रयोग किया जाना चाहिए।
प्राचीन भारत में रसायन के सिद्धांतों का ज्ञान इस सीमा तक था कि उन्हें वातावरण में नमी, ऑक्सीजन तथा अनेक अम्लीय अथवा क्षारीय पदार्थों के संपर्क में धातुओं के संक्षारण का तथ्य भी ज्ञात था। याज्ञवल्कय स्मृति में संक्षारित धातुओं को अम्ल अथवा क्षार की सहायता से शुद्ध करने का विधान भी दिया गया है। रसार्णव में यह भी बताया गया है कि वंग, सीसा, लोहा, तांबा, रजत और स्वर्ण में स्वत: संक्षारण की प्रवृत्ति इसी क्रम में घटती जाती है जो आधुनिक रसायनशास्त्र के संगत है।
संक्षारण एवं अन्य प्राकृतिक आक्रमणों से वस्तुओं को दस हजार वर्षों तक सुरक्षित रखने के लिए वराहमिहिर की वृहत संहिता में वज्र लेप एवं वज्र संघट्ट के प्रयोग की अनुशंसा है। वज्र लेप को वानस्पतिक एवं वज्र संघट्ट को जैविक श्रोतों से निर्मित करने की विधियां भी वर्णन की गई हैं। शुक्र नीति में कोयला, गंधक, शोरा, लाल आर्सेनिक, पीत आर्सेनिक, आक्सीकृत सीसा, सिंदूर, इस्पात का चूरा, कपूर, लाख, तारपीन एवं गोंद के भिन्न-भिन्न अनुपातों में मिश्रण को गर्म कर अनेक प्रकार के विस्फोटकों के निर्माण की चर्चा की गई है।
प्राचीन भारतीय रसायन साहित्य में सर्वाधिक समृद्ध अध्याय मिश्र धातुओं का है। पुरातात्विक प्रमाण सिद्ध करते हैं कि ईसाई युग के प्रारंभ के सहस्रों वर्ष पहले से भारतीयों को मिश्र धातुओं और उनके महत्व का ज्ञान था। व्रोंज एवं पीतल के नमूने लगभग सभी उत्खनन स्थलों से प्राप्त हुए हैं और वेदों में भी इनका उल्लेख मिलता है। संस्कृत में तो जस्त का एक नाम सुवर्णकार इसीलिए है क्योंकि उसका संयोग तांबे को स्वर्ण समान धातु (पीतल) में परिवर्तित कर देता है। वस्तुत: वेदों में तथा रसार्णव, अर्थशास्त्र, अष्टाध्यायी एवं रसरत्न समुच्चय आदि ग्रंथों में पीतल को भी सुवर्ण कहकर ही पुकारा गया है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में चार प्रकार की सिक्का धातुएं वर्णित हैं-मशकम, अर्धमशकम, काकनी एवं अर्धकाकनी। ये सभी रजत, तांबा, लोहा, वंग और सीसा अथवा एंटिमनी को विभिन्न अनुपातों में मिलाकर बनाई जाती थीं। इसी प्रकार चांदी एवं पारद की भी कई वर्णों वाली मिश्र धातुएं बनाई जाती थीं। वंग की भी सोने के वर्ण वाली कई मिश्र धातुएं अभ्रक, तांबा, चांदी और पारे के संयोग से विरचित की जाती थीं। स्वर्ण की तो अनेक मिश्र धातुएं ज्ञात थीं।
स्वर्ण जैसे रंग वाली पीतल धातु तांबे और जस्त के मुख्यत: दो प्रकार के अनुपातों से बनाई जाती थीं और इनके नाम रीतिका एवं काकतुंडी थे। जस्त का मिश्रणन सीधे ही अथवा जस्त अयस्क (कैलामाइन) के रूप में किया जाता था। सीधे कैलामाइन के उपयोग से पीतल निर्माण आज प्रचलित नहीं है। अयस्क वाले पीतल में जस्त २८ प्रतिशत जबकि दूसरे में यह कम ही यानी ६ प्रतिशत होता था और यही पीतल आज के व्रोंज पीतल के समकक्ष ठहरता है। अधिक जस्त वाले ४० प्रतिशत तक कई प्रकार के पीतल भी आजकल तैयार किये जाते हैं। व्रोंज भी आज की भांति कई प्रकार के होते थे जिनमें तांबा ८०-९० प्रतिशत तक हो सकता था। शेष जस्त एवं टिन होता था। मूर्ति निर्माण में पंचलोहा का प्रयोग किया जाता था, जिसमें वंग, तांबा, सीसा, लोहा एवं रजत का मिश्रण होता था (चरक संहिता)। कभी-कभी रजत के स्थान पर पीतल का प्रयोग किया जाता था (रसरत्न समुच्चय)। मंदिरों में आकर्षक ध्वनि उत्पन्न करने वाले घंटे न हों तो मंदिर ही क्या। इनके लिए तांबा और वंग विभिन्न अनुपातों में मिलाए जाते थे। आज के ‘बेल मेटल‘ में भी ८० प्रतिशत सीयू एवं २० प्रतिशत एसएन होता है। कुछ अन्य धातुएं भी लेशमात्र उपस्थित हो सकती है।
शोध की आवश्यकता
विशिष्ट तकनीकी उपयोग के लिए कुछ अत्यंत विचित्र मिश्र धातुएं तैयार की जाती थीं। कुछ के संघटन समझ में आते हैं और कुछ अति प्राचीन संस्कृत नामों के कारण बुद्धि से परे जान पड़ते हैं। इन सभी पर शोध की नितांत आवश्यकता है। रहस्योद्घाटन हो जाने पर मानवता को अपरिमित लाभ होने की पूर्ण संभावना है। भारद्वाज मुनि के वृहद विमान शास्त्रम् में विमान के यात्री कक्ष को शीतल रखने के लिए विद्युत दर्पण नामक यंत्र को तड़ित दर्पण मिश्र धातु से बनाने का विधान है जिसके विरचन के लिए १६ पदार्थों की सूची है। इनमें से अनेक अज्ञात हैं। वैमानिकी में काम आने वाली कुछ अन्य विचित्र सी लगने वाली मिश्र धातुएं इस प्रकार हैं-‘एअरोडाइनेमिक कंट्रोल‘ के कई उपकरणों के लिए अरारा ताम्र धातु का विधान है जिसमें ८४.२प्रतिशत तांबा, १५-१८प्रतिशत वंग एवं ०.०२प्रतिशत सीसा अपेक्षित था। यह मिश्र धातु आज के फॉस्फर व्रोंज से मिलती जुलती है जिसका गलनांक १००० डिग्री होता है। बाजीमुख लौह (लौह तंत्र) कुछ-कुछ फोम की प्रकृति की अत्यंत नरम, पीले रंग की मिश्र धातु है जो ध्वनि शोषक का कार्य करती थी। यह तांबा, आयरन, पायराइटीज, जस्त, सीसा, लोहा, वंग, तांबे की एक श्तेवर्णी मिश्र धातु, पंचानन, अभ्रक एवं सोंठ के मिश्रण से तैयार की जाती थी। शक्ति गर्भ लौह के लिए कांटा (कास्ट आयरन) ३७ प्रतिशत, क्रौंचिका स्टील ३३प्रतिशत तथा सामान्य लौह अथवा कोई भिन्न स्टील ३३ प्रतिशत का मिश्रण अनुशंसित है। इसी प्रकार एक अत्यंत हल्की यद्यपि कठोर मिश्र धातु बैडाल लौह १५ तथा घंटारव लौह १२ पदार्थों के मिश्रण से बनाई जाती थी, जिनमें से अनेक नाम अभी समझने शेष हैं।
शत्रु विमान से बचने के लिए अथवा उन पर आक्रमण के लिए विषैली धूम फेंकने वाले यंत्र के निर्माण के लिए क्षौंडीर लौह मिश्र धातु की अनुशंसा है जिसके निर्माण में पारद, वीरा, क्रौंचिका, कास्ट आयरन, रजत, माध्विकम एवं वंग की आवश्यकता पड़ती थी। त्रिपुर विमान जो संभवत: अंतरिक्ष विमान था, में लगे यंत्रों के निर्माण के लिए अनेक मिश्र धातुओं का वर्णन है जिसमें से एक त्रिनेत्र लौह है जो संभवत: क्रोम वैनेडियम स्टील था-यद्यपि उसका संघटन आज के इस प्रकार के स्टील से भिन्न था।
हमारी रसायन संबंधी विरासत विशाल है। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं के संपादन के लिए आवश्यक रसायन एवं अभिकर्मक वानस्पतिक तथा जैविक स्रोतों से प्राप्त किए जाते थे। उत्प्रेरकों, अम्लों एवं क्षारों पर भी यह बात लागू होती है। इसी कारण प्राचीन भारतीय रसायन का रूप आधुनिक रसायन की अपेक्षा कम प्रदूषणकारी था।
इस लेख का उद्देश्य यह सिद्ध करना नहीं है कि प्राचीन रसायन आज से अधिक समुन्नत और अधिक संभावनाओं से परिपूर्ण था। यह निर्विवाद है कि आज के युग में रसायनशास्त्र ने अकल्पनीय प्रगति की है। उद्देश्य तो केवल मात्र इस भ्रम का उच्छेद करना है कि हम नितांत अज्ञानी थे। यह तो अब स्पष्ट है कि रसायन के क्षेत्र में हमारी परंपरा अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली रही है। साथ ही यह कहना भी समीचीन होगा कि इस पारंपरिक ज्ञान की बहुत सारी अनुद्घाटित बातों पर गहन शोध की अपेक्षा है जिससे आज का रसायनशास्त्र निश्चित रूप से अधिक समृद्धशाली बनेगा।