कितना वैज्ञानिक है डार्विन का विकासवाद?


लेखक - देवेन्द्र स्वरूप

१२ फरवरी, १८०९ को जन्मे विकासवाद के सिद्धांत के जनक चार्ल्स डार्विन (१८०९-१८८२) के २०० वें जन्मदिवस की चर्चा पूरे विश्व में हो रही है। उनके बारे में विशाल साहित्य का सृजन हो रहा है। अमरीका में विकासवादियों और सृष्टिवादियों के बीच बहस चल रही है। आधुनिक वैज्ञानिकों का एक वर्ग जीन, जैनेटिक सिद्धांत और डी.एन.ए.नामक अत्याधुनिक खोजों के आधार पर विकासवाद को पूर्णतया वैज्ञानिक और अचूक सिद्ध करने का प्रयास कर रहा है। दूसरी तरफ सृष्टिवादी विकासवाद को अपूर्ण व अवैज्ञानिक बता रहे हैं। उनका विश्वास है कि सृष्टि रचना के पीछे कोई ‘विवेकपूर्ण योजना‘ (इंटेलीजेंट डिजाइन) अवश्य विद्यमान है। ‘वैज्ञानिक सृष्टिवाद‘ के समर्थक डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकासवाद के किसी भी निष्कर्ष को स्वीकार नहीं करते। १९५७ तक विकासवाद को अमरीकी स्कूलों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित नहीं किया गया। उस समय भी सोवियत संघ द्वारा ‘स्पुतनिक‘ उपग्रह के प्रक्षेपण से वैज्ञानिक स्पर्धा में पिछड़ जाने की चिंता के कारण उसे पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया। किंतु १९८१ में अमरीका के २७ राज्यों में, जहां सत्ता में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत था, विशेष कानून बनाकर विकासवाद के साथ-साथ सृष्टिवाद का अध्ययन भी अनिवार्य कर दिया गया। इसे लेकर विकासवाद के समर्थकों ने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उनके तर्क‌ और तथ्यों से प्रभावित होकर अमरीकी फेडरल कोर्ट ने १९८७ में सृष्टिवाद को अवैज्ञानिक घोषित करके इसे विज्ञान के पाठ्यक्रम में न सम्मिलित करने का आदेश दे दिया, पर विवाद बना रहा। गत वर्ष २६ जून, २००८ को लुईसियाना राज्य ने साएंस एजूकेशन एक्ट पास करके पाठ्यक्रम में सृष्टिवाद को पढ़ाने का रास्ता प्रशस्त कर दिया। एक व्यापक सर्वेक्षण के अनुसार केवल ४० प्रतिशत वयस्क अमरीकी विकासवाद के सिद्धांत को स्वीकार करते हैं, शेष ६० प्रतिशत उसे अस्वीकार करते हैं और सृष्टिवाद को मानते हैं। इसी प्रकार व्रिटेन में भी एक सर्वेक्षण में पाया गया कि ५१ प्रतिशत लोगों का मत है कि विकासवाद का सिद्धांत पृथ्वी पर जीवन की सम्पूर्ण विविधता और जटिलता का समाधान नहीं कर पाता और इसके पीछे किसी अलौकिक सत्ता की भूमिका अवश्य है। पता नहीं, क्यों पूरे डेढ़ सौ वर्ष तक विकासवाद के सिद्धांत का विरोध करने के बाद रोमन कैथोलिक चर्च ने हाल ही में घोषणा की है कि इस सिद्धांत का हमारी आस्थाओं से कोई विरोध नहीं है?


हम कौन हैं
हम कौन हैं? कहां से आये हैं? हमारे अस्तित्व का अर्थ क्या है, लक्ष्य क्या है? सृष्टि में इतनी विविधता कैसे और क्यों उत्पन्न हुई? क्या इस विविधता के पीछे कोई एक सूत्र है? इस विविधता का नियमन कौन करता है, कैसे करता है? ये और ऐसे अनेक प्रश्न मानव मस्तिष्क को सभ्यता के आरंभ से ही कुरेदते रहे हैं। सभी चिंतन धाराओं ने इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयास किया है। वैदिक, बौद्ध, जैन, यहूदी, ईसाई, इस्लाम आदि सभी विचार प्रवाहों ने अपनी-अपनी भाषा में इन प्रश्नों का उत्तर दिया है। ये सभी प्राचीन विचारप्रवाह इस पर एकमत रहे हैं कि सृष्टि चक्र के पीछे जो मूल तत्व है वह जड़ नहीं, चेतन है। वह चेतन तत्व ही प्राणरूप में प्रवाहित हो रहा है। उस चेतन सत्ता को किसी ने व्रह्म कहा, किसी ने गॉड, किसी ने अल्लाह। किंतु सबने माना कि उस अंतिम अमूर्त्त चेतन तत्व का प्राणी जगत में मूर्त प्रतिनिधि ‘मनुष्य‘ है। किसी ने मनुष्य को उस परम चैतन्य की अनुकृति (इमेज) कहा, किसी ने उसे उसका पुत्र कहा।

भारत के उपनिषद साहित्य में इन प्रश्नों का बहुत अधिक विवेचन हुआ है। केनोपनिषद्‌ पूछता है- किसकी प्रेरणा से यह मन विषयों में गिरता है, किसके द्वारा नियुक्त होकर अन्य सबसे श्रेष्ठ प्राण चलता है, किसके द्वारा क्रियाशील होकर इस वाणी को लोग बोलते हैं, कौन देव है जो आंख और कान को उनके विषयों में नियुक्त करता है? कठोपनिषद्‌ में नचिकेता यम से वर मांगता है कि मुझे इस प्रश्न का उत्तर दीजिए कि यह आत्मा मृत्यु के बाद रहती है या नहीं। प्रश्नोपनिषद में तो कबन्धी कात्यायन पिप्पलाद ऋषि से दो टूक प्रश्न करती है, ‘भगवन्‌! किस प्रसिद्ध और सुनिश्चित कारण विशेष से यह सम्पूर्ण प्रजा नाना रूपों में उत्पन्न होती है।‘ अगला प्रश्न वैदर्भि‌ भार्गव पूछते हैं, ‘भगवन्‌ कुल कितने देवता प्रजा को धारण करते हैं?‘ उनमें से कौन-कौन इसे प्रकाशित करते हैं, इन सबमें कौन सर्वश्रेष्ठ है? प्रश्नोत्तर को आगे बढ़ाते हुए कौसल्य आश्वालयन पूछते हैं, ‘देवताओं में सर्वश्रेष्ठ प्राण किससे उत्पन्न होता है? इस शरीर में कैसे आता है? वह अपने को विभाजित करके किस प्रकार स्थित होता है? किस ढंग से उत्क्रमण करता है? किस प्रकार बाह्य और आंतरिक जगत को धारण करता है? ऐतरेय उपनिषद अव्यक्त से व्यक्त, सृष्टि की उत्पत्ति प्रक्रिया का वर्णन करते हुए कहता है कि ‘प्रारंभ में एकमात्र आत्मा ही थी, दूसरा कोई भी चेष्टा करने वाला नहीं था। उसने इच्छा की कि मैं लोगों की रचना करूं। उसने पहले देवताओं (आंख, कान, वाणी आदि) की रचना की, भूख-प्यास का सृजन किया, वे तब अमूर्त्त थे। उन्होंने कहा हमारे निवास के लिए शरीर लाओ। वह सृष्टिकर्त्ता उनके लिए पहले गाय का शरीर लाया, फिर घोड़े का। फिर मनुष्य शरीर लाया तो उन्होंने कहा कि अत्युत्तम है, हम इसी में रहेंगे। पूरा उपनिषद साहित्य इन प्रश्नों को उठाता है और उनके उत्तर देता है। इन सब उत्तरों से एक बात स्पष्ट है कि सृष्टि का आदि तत्व चेतन है (सत्‌ चित्‌ आनंद है) और मनुष्य उसकी सृष्टि में सर्वोत्तम कृति है।


जबरदस्त कुठाराघात
किंतु १८५९ में चार्ल्स डार्विन ने ‘ओरिजिन आफ स्पेसीज‘ नामक पुस्तक प्रकाशित करके विकासवाद का सिद्धांत प्रकाशित किया, जिसके मूल तत्व निम्नलिखित हैं- थ्‌ इस विविधतापूर्ण दृश्य जगत का आरंभ एक सरल और सूक्ष्म एककोशीय भौतिक वस्तु (सेल या अमीबा) से हुआ है। यही एककोशीय वस्तु कालचक्र से जटिल होते-होते इस बहुमुखी विविधता में विकसित हुई है। जिसके शीर्ष पर मनुष्य नामक प्राणी स्थित है। थ्‌ इस विविधता विस्तार की प्रक्रिया में सतत्‌ अस्तित्व के लिए संघर्ष चलता रहता है। थ्‌ इस संघर्ष में जो दुर्बल हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। जो सक्षम हैं वे बच जाते हैं। इसे प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया कह सकते हैं। थ्‌ प्राकृतिक चयन की इस प्रक्रिया में मानव का अवतरण बंदर या चिम्पाजी की प्रजाति से हुआ है अर्थात्‌ बंदर ही मानवजाति का पूर्वज है। वह ईश्वर पुत्र नहीं है, क्योंकि ईश्वर जैसी किसी अभौतिक सत्ता का अस्तित्व ही नहीं है। १८७१ में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘दि डिसेंट आफ मैन‘ (मनुष्य का अवरोहण) शीर्षक देकर डार्विन ने स्पष्ट कर दिया मनुष्य ऊपर उठने की बजाय बंदर से नीचे आया है। थ्‌ प्राकृतिक चयन से विभिन्न प्रजातियों के रूपांतरण अथवा लुप्त होने में लाखों वर्षों का समय लगा होगा।

डार्विन की इस प्रस्थापना ने यूरोप के ईसाई मस्तिष्क की उस समय की आस्थाओं पर जबरदस्त कुठाराघात किया। तब तक ईसाई मान्यता यह थी कि सृष्टि का जन्म ईसा से ४००४ वर्ष पूर्व एक बड़े धमाके (बिग बैंग) के साथ हुआ था। किंतु अब चार्ल्स लायल जैसे भूगर्भ शास्त्री और चार्ल्स डार्विन जैसे प्राणी शास्त्री सृष्टि की आयु को लाखों वर्ष पीछे ले जा रहे थे। यहां यह बताना उपयुक्त रहेगा कि अब विज्ञान ने सृष्टि के आरंभ का समय भारत की मन्वतंर कालगणना द्वारा निर्धारित दो खरब वर्ष के लगभग ही मान लिया है। इस दृष्टि से लायल और डार्विन की खोजों ने यूरोपीय ईसाई मस्तिष्क को बाइबिल की कालगणना की दासता से मुक्त होने में सहायता की।


आहत चर्च
डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से चर्च भले ही आहत हुआ हो और उसने डार्विन का कड़ा विरोध किया हो किंतु सामान्य यूरोपीय मानस बहुत उत्साहित और उल्लसित हो उठा। तब तक यूरोप की विज्ञान यात्रा देश और काल से आबद्ध भौतिकवाद की परिधि में ही भटक रही थी। भौतिकवाद ही यूरोप का मंत्र बन गया था। पूरे विश्व पर यूरोप का वर्चस्व छाया हुआ था। एशिया और अफ्र्ीका में उसके उपनिवेश स्थापित हो चुके थे। भापशक्ति के आविष्कार ने जिस औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया, स्टीमर आदि यातायात के त्वरित साधनों का आविष्कार किया, उससे यूरोप का नस्ली अहंकार अपने चरम पर था। ऐसे मानसिक वातावरण में डार्विन का प्राकृतिक चयन का सिद्धांत उनके नस्ली अहंकार का पोषक बनकर आया। अस्तित्व के सतत्‌ संघर्ष और योग्यतम की विजय के सिद्धांत को यूरोपीय विचारकों ने हाथों हाथ उठा लिया। एक ओर हर्बर्ट स्पेंसर और टी.एच.हक्सले जैसे नृवंश शास्त्रियों ने इस सिद्धांत को प्राणी जगत से आगे ले जाकर समाजशास्त्र के क्षेत्र में मानव सभ्यता की यात्रा पर लागू किया। तो कार्ल मार्क्स और एंजिल्स ने उसे अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के लिए इस्तेमाल किया। जिस वर्ष डार्विन की ‘ओरिजन आफ स्पेसीज‘ पुस्तक प्रकाशित हुई उसी वर्ष मार्क्स की ‘क्रिटिक आफ पालिटिकल इकानामी‘ पुस्तक भी प्रकाश में आयी। डार्विन की पुस्तक को पूरा पढ़ने के बाद मार्क्स ने १९ दिसंबर, १८६० को एंजिल्स को पत्र लिखा कि यह पुस्तक हमारे अपने विचारों के लिए प्राकृतिक इतिहास का अधिष्ठान प्रदान करती है। १६ जनवरी, १८६१ को मार्क्स ने अपने मित्र एफ.लास्सेल को लिखा कि ‘डार्विन की पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है और वह इतिहास से वर्ग संघर्ष के लिए प्राकृतिक-वैज्ञानिक आधार प्रदान करने की दृष्टि से मुझे उपयोगी लगी है।‘ १८७१ में ‘दि डिसेंट आफ मैन‘ पुस्तक प्रकाशित होते ही उसके आधार पर एंजिल्स ने लेख लिखा, ‘बंदर के मनुष्य बनने में श्रम का योगदान‘ (दि रोल आफ लेबर इन ट्रांसफार्मेशन आफ एज टु मैन)। मार्क्स पर डार्विन के विचारों का इतना अधिक प्रभाव था कि वह अपनी सुप्रसिद्ध कृति ‘दास कैपिटल‘ का एक खंड डार्विन को ही समर्पित करना चाहता था, किंतु डार्विन ने १३ अक्तूबर, १८८० को पत्र लिखकर इस सम्मान को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि उसे मार्क्स की पुस्तक के विषय का कोई ज्ञान नहीं था। ऐसा नहीं है कि मार्क्स को डार्विन की प्रस्थापनाओं की राजनीतिक पृष्ठभूमि की समझ नहीं थी। मार्क्स ने १५ फरवरी, १८६९ को अपनी दूसरी पुत्री लौरा और उसके पति पाल लाफार्गे को लिखे पत्र में स्वीकार किया था कि अंग्रेजी समाज में उस समय प्रतिस्पर्धा का जो भयंकर उन्माद छाया हुआ था उसी ने डार्विन के ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष और पशुओं तथा वृक्षों के प्राकृतिक चयन‘ का विचार पैदा किया। मार्क्स ने आगे लिखा है कि इस महान प्राणीशास्त्री के सिद्धांत का समाजशास्त्री डार्विनवादियों ने दुरुपयोग किया। एक अवैज्ञानिक सिद्धांत के समाजशास्त्रीय दुरुपयोग को जानने के बाद भी मार्क्स और एंजिल्स स्वयं भी उसके मोहजाल में फंस गये। १८७७ में एक अमरीकी नस्ल विज्ञानी लेविस हेनरी मार्गन ने विकासवाद पर आधारित अपनी प्रसिद्ध रचना एंशियेंट सोसायटी (प्राचीन समाज) प्रकाशित की, जिसमें उसने मानव जाति की यात्रा की दिशा पाशविक बर्बरता से सभ्यता की ओर बतायी और इस यात्रा के चार चरण भी निर्धारित किए। मार्क्स की इस पुस्तक की प्रशंसा एंजिल्स ने की और एंजिल्स ने उसके आधार पर १८८४ में अपनी प्रसिद्ध कृति ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति‘ प्रकाशित की। एक अपूर्ण और अवैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर विचारधारा का महल खड़ा करने का परिणाम क्या हो सकता है, यह हम सोवियत संघ और माओ के चीन में मार्क्सवाद के दशाब्दियों लम्बे प्रयोग की विफलता के रूप में देख ही चुके हैं।


प्रस्थापना का खण्डन
पश्चिम की वैज्ञानिक यात्रा भी उन्नीसवीं शताब्दी की भौतिकवादी सीमाओं को लांघकर बहुत आगे जा चुकी है। श्रोडिंगर, रदरफोर्ड, जेम्स जींस, फ्र्ेड होयल, डेविड बोम, फिट्जोंफ कापरा आदि अनेक वैज्ञानिक देश और काल के परे किसी अतीन्द्रिय सत्ता के अस्तित्व की बात कर रहे हैं। त्रिगुणात्मक प्रकृति से परे ले जाने वाले योग मार्ग की ओर पूरे विश्व का आकर्षण पैदा हो रहा है। भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने वनस्पतियों और खनिज पदार्थों में चेतना के अस्तित्व को प्रत्यक्ष प्रयोगों द्वारा प्रभावित करके दिखाया था। प्राचीन भारतीय मनीषा ने प्राणी जगत की विविधता को रेखांकित करने के लिए ३३ कोटि देवताओं अर्थात्‌ योनियों की बात की थी। उत्पत्ति के आधार पर उन्होंने प्राणी मात्र का वर्गीकरण चार भागों में किया था। १। अण्डज-अण्डे का शुक्राणु से पैदा होने वाले २. जटायुज ३. उदिज्ज-धरती में पैदा होने वाले और ४. स्वेयज-पसीने से पैदा होने वाले। प्राणी उत्पत्ति के ये चारों वर्ण अपरिवर्तनीय हैं। इससे डार्विन की इस मूल प्रस्थापना का खंडन हो जाता है कि पूरे प्राणी और वनस्पति जगत का विस्तार किसी एककोशीय प्राणी से हुआ है। एक ही माता-पिता से उत्पन्न संतान में गुण, क्षमता और प्रतिभा के भारी अंतर का कोई समाधान डार्विन के विकासवाद में नहीं है। संक्षेप में कहना हो तो डार्विन के विकासवाद का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोपीय अहंकार और इन डेढ़ सौ वर्षों में विज्ञान की प्रगति और मानव जाति के अनुभवों के आलोक में मानव तथा सृष्टि के अपूर्ण ज्ञान से हुआ है। स्मरणीय है कि १८५९ में जब डार्विन ने योग्यतम की विजय का सिद्धांत घोषित किया उस समय अंग्रेज भारतीय महाक्रांति की विफलता को बर्बरता पर सभ्यता की विजय घोषित कर रहे थे और पराभूत भारत से बदले की आग में जल रहे थे। उसका पुनर्मूल्याकंन आवश्यक है।