लेखक - सुरेश सोनी
लीलावती अपने पिता से पूछती है कि पिताजी, मुझे तो पृथ्वी चारों ओर सपाट दिखाई देती है, फिर आप यह क्यों कहते हैं कि पृथ्वी गोल है।
तब भास्कराचार्य कहते हैं कि पुत्री, जो हम देखते हैं वह सदा वैसा ही सत्य नहीं होता। तुम एक बड़ा वृत्त खींचो, फिर उसकी परिधि के सौवें भाग को देखो, तुम्हें वह सीधी रेखा में दिखाई देगा। पर वास्तव में वह वैसी नहीं होता, वक्र होता है। इसी प्रकार विशाल पृथ्वी के गोले के छोटे भाग को हम देखते हैं, वह सपाट नजर आता है। वास्तव में पृथ्वी गोल है।
समो यत: स्यात्परिधे: शतांश:
नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कुत्स्ना
समेव तस्य प्रतिभात्यत: सा॥ १३ ॥
सिद्धांत शिरोमणी गोलाध्याय-भुवनकोश
पृथ्वी स्थिर नहीं है:-पश्चिम में १५वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है, परन्तु आज से १५०० वर्ष पहले हुए आर्यभट्ट, भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से देते हैं-
विलोमंग यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् सम
पश्चिमगानि लंकायाम्॥
आर्यभट्टीय गोलपाद-९
अर्थात् नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।
इसी प्रकार पृथुदक् स्वामी, जिन्होंने व्रह्मगुप्त के व्रह्मस्फुट सिद्धान्त पर भाष्य लिखा है, आर्यभट्ट की एक आर्या का उल्लेख किया है-
भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्॥
अर्थात् तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।
अपने ग्रंथ आर्यभट्टीय में आर्यभट्ट ने दशगीतिका नामक प्रकरण में स्पष्ट लिखा-प्राणे नैतिकलांभू: अर्थात् एक प्राण समय में पृथ्वी एक कला घूमती है (एक दिन में २१६०० प्राण होते हैं)
सूर्योदय-सूर्यास्त-भूमि गोलाकार होने के कारण विविध नगरों में रेखांतर होने के कारण अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर सूर्योदय व सूर्यास्त होते हैं। इसे आर्यभट्ट ने ज्ञात कर लिया था, वे लिखते हैं-
उदयो यो लंकायां सोस्तमय:
सवितुरेव सिद्धपुरे।
विषयेऽर्धरात्र: स्यात्॥
(आर्यभट्टीय गोलपाद-१३)
अर्थात् जब लंका में सूर्योदय होता है तब सिद्धपुर में सूर्यास्त हो जाता है। यवकोटि में मध्याह्न तथा रोमक प्रदेश में अर्धरात्रि होती है।
चंद्र-सूर्यग्रहण- आर्यभट्ट ने कहा कि राहु केतु के कारण नहीं अपितु पृथ्वी व चंद्र की छाया के कारण ग्रहण होता है।
अर्थात् पृथ्वी की बड़ी छाया जब चन्द्रमा पर पड़ती है तो चन्द्र ग्रहण होता है। इसी प्रकार चन्द्र जब पृथ्वी और सूर्य के बीच आता है तो सूर्यग्रहण होता है।
विभिन्न ग्रहों की दूरी- आर्यभट्ट ने सूर्य से विविध ग्रहों की दूरी के बारे में बताया है। वह आजकल के माप से मिलता-जुलता है। आजकल पृथ्वी से सूर्य की दूरी (15 करोड़ किलोमीटर) है। इसे AU ( Astronomical unit) कहा जाता है। इस अनुपात के आधार पर निम्न सूची बनती है।
ग्रह | आर्यभट्ट का मान | वर्तमान मान |
बुध | ०.३७५ एयू | ०.३८७ एयू |
शुक्र | ०.७२५ एयू | ०.७२३ एयू |
मंगल | १.५३८ एयू | १.५२३ एयू |
गुरु | ५.१६ एयू | ५.२० एयू |
शनि | ९.४१ एयू | ९.५४ एयू |
व्रह्माण्ड का विस्तार- व्रह्माण्ड की विशालता का भी हमारे पूर्वजों ने अनुभव किया था। आजकल व्रह्माण्ड की विशालता मापने हेतु प्रकाश वर्ष की इकाई का प्रयोग होता है। प्रकाश एक सेकेंड में ३ लाख किलोमीटर की गति से भागता है। इस गति से भागते हुए एक वर्ष में जितनी दूरी प्रकाश तय करेगा उसे प्रकाश वर्ष कहा जाता है। इस पैमाने से आधुनिक विज्ञान बताता है कि हमारी आकाश गंगा, जिसे Milki way कहा जाता है, की लम्बाई एक लाख प्रकाश वर्ष है तथा चौड़ाई दस हजार प्रकाश वर्ष है।
इस आकाश गंगा के ऊपर स्थित एण्ड्रोला नामक आकाश गंगा इस आकाश गंगा से २० लाख २० हजार प्रकाश वर्ष दूर है और व्रह्माण्ड में ऐसी करोड़ों आकाश गंगाएं हैं।
श्रीमद्भागवत में राजा परीक्षित महामुनि शुकदेव से पूछते हैं, व्रह्माण्ड का व्याप क्या है? इसकी व्याख्या में शुकदेव व्रह्माण्ड के विस्तार का उल्लेख करते हैं- ‘हमारा जो व्रह्माण्ड है, उसे उससे दस गुने बड़े आवरण ने ढंका हुआ है। प्रत्येक ऊपर का आवरण दस गुना है और ऐसे सात आवरण मैं जानता हूं। इन सबके सहित यह समूचा व्रह्माण्ड जिसमें परमाणु के समान दिखाई देता है तथा जिसमें ऐसे करोड़ों व्रह्माण्ड हैं, वह समस्त कारणों का कारण है।‘ ये बात बुद्धि को कुछ अबोध्य-सी लगती है। पर हमारे यहां जिस एक शक्ति से सब कुछ उत्पन्न-संचालित माना गया, उस ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम अनंत कोटि व्रह्माण्ड नायक बताया गया है। यह नाम जहां व्रह्मांडों की अनन्तता बताता है, वहीं इस विश्लेषण के वैज्ञानिक होने की अनुभूति भी कराता है। इस प्रकार इस संक्षिप्त अवलोकन से हम कह सकते हैं कि काल गणना और खगोल विज्ञान की भारत में उज्ज्वल परम्परा रही है। पिछली सदियों में यह धारा कुछ अवरुद्ध सी हो गई थी। आज पुन: उसे आगे बढ़ाने की प्रेरणा पूर्वकाल के आचार्य आज की पीढ़ी को दे रहे हैं।
(क्रमश:)