लेखक - सुरेश सोनी
(१) कलावेष्टन (ग्र्द्वद्यड्ढद्ध ध्र्ठ्ठथ्थ्)
(२)रंजकयुक्त रसाश्रय (क्रठ्ठद्र ध्त्द्र्यण् ठ्ठ ड़दृथ्दृद्वद्धत्दढ़ थ्र्ठ्ठद्यद्यड्ढद्ध)
(३) सूक्ष्मपत्रक (क्ष्ददड्ढद्ध ध्र्ठ्ठथ्थ्)
(४) अण्वश्च (ग़्दृद्य ध्त्द्मत्डथ्ड्ढ द्यदृ द्यण्ड्ढ दठ्ठत्त्ड्ढड्ड ड्ढन्र्ड्ढ)
अब यह सेल का वर्णन तो बिना माइक्रोस्कोप के संभव नहीं है। यानी वृक्ष आयुर्वेद के लेखक को हजारों साल पहले माईक्रोस्कोप का ज्ञान रहा होगा। तब पश्चिम में इसे कोई नहीं जनता था। यह वृक्ष आयुर्वेद की वैज्ञानिक दृष्टि थी। विचार करने की विषय यह है कि अनुसंधान की परम्परा चलते रहने और अंत में इतनी गहन वैज्ञानिक दृष्टि को पाने में कितने वर्ष लगे होंगे। क्योंकि किसी और देश में वनस्पति शास्त्र का इतना प्राचीन और गहन अध्ययन नहीं हुआ है जितना कि भारत में। परन्तु हमारे वनस्पति शास्त्र के विद्वान इन सन्दभों को पाठ्य पुस्तकों में नहीं रखते, क्योंकि वे संस्कृत नहीं जानते। वे संस्कृत स्वयं पढ़ें या न पढ़ें, परन्तु यदि विज्ञान के विद्यार्थी के लिए संस्कृत का ज्ञान अनिवार्य कर दें तो इस देश के ज्ञान-विज्ञान का मार्ग स्वत: प्रशस्त हो जाएगा। जिसको संस्कृत का ज्ञान नहीं है उसे वृक्ष आयुर्वेद का ज्ञान कहां से होगा?
इसी प्रकार-प्रसिद्ध ग्रंथ च्ड़त्ड्ढदड़द्यत्ढत्ड़ ण्ड्ढद्धत्द्यठ्ठढ़ड्ढ दृढ क्ष्दड्डत्ठ्ठ के पृष्ठ १६३ में वृक्षों का विभिन्न वर्गीकरण, जो चरक, सुश्रुत, महर्षि पाराशर आदि ने किया है, उसका वर्णन है। वह भी वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में भारत की प्रगति को दर्शाता है।
चरक का वर्गीकरण
चरक अपनी ‘चरक संहिता‘ में वनस्पतियों का चार प्रकार से वर्गीकरण करते हैं:-
(१) जिनमें फूल के बिना ही फलों की उत्पत्ति होती है जैसे गूलर, कटहल आदि।
(२) वानस्पत्य- जिनमें फूल के बाद फल लगते हैं जैसे आम, अमरूद आदि।
(३) औषधि-जो फल पकने के बाद स्वयं सूखकर गिर पड़ें, उन्हें औषधि कहते हैं। जैसे गेंहू, जौ, चना आदि।
(४) वीरुध- जिनके तन्तु निकलते हैं, उन्हें वीरुध कहते हैं, जैसे लताएं, बेल, गुल्म आदि।
इसी प्रकार वनस्पति के प्रयोग के अनुसार भी कुछ वर्गीकरण हैं-
(अ) मूलिनी-जिसका मूल अन्य अंगों की अपेक्षा प्रायोगिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। इनकी सोलह संख्या बताई है।
(ब) फलनी- जिनका फल प्रयोग की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें उन्नीस प्रकार के पौधे बताये हैं। चरक ऋषि ने मानव के आहार योग्य वनस्पतियों को सात भागों में बांटा है।
(१) शूक धान्य- जिन पर शूक (बाल) निकलते हैं जैसे गेहूं, जौ आदि
(२) शिम्बी धान्य-फली की जाति वाले, जिन पर छिलका रहता है। जैसे सेम, मटर, मूंग, उड़द, अरहर आदि।
(३) शाक वर्ग- पालक, मेथी, बथुआ आदि।
(४) फल वर्ग-विभिन्न प्रकार के फल।
(५) हरित वर्ग- विभिन्न प्रकार की तरकारी, लौकी, तोरई आदि।
(६) आहार योनि वर्ग-तिल, मसाले आदि जिनका आहार में उपयोग होता है।
(७) इक्षु वर्ग- गन्ना और उसकी जातियां।
सुश्रुत का वर्गीकरण: सुश्रुत ने शाकों को दस वर्गों में बांटा है।
(१) मूल- मूली आदि। (२) पत्र- जिनके पत्तों का उपयोग होता है। (३) करीर - जिनके अंकुर का उपयोग होता है, जैसे बास। (४) अग्र-बेंत आदि। (५) फल - सभी फलदार पौधे। (६) काण्ड - कृष्माण्ड आदि। (७) अधिरुढ़-लता आदि। (८) त्वक्-मातुलुंग आदि। (९) पुष्प-कचनार आदि। (१०) कवक
महर्षि पाराशर का वर्गीकरण
महर्षि पराशर ने सपुष्प वनस्पतियों को विविध परिवारों में बांटा है। जैसे शमीगणीय (फलियों वाले पौधे), पिपीलिका गणीय, स्वास्तिक गणीय, त्रिपुण्डक् गणीय, मल्लिका गणीय और कूर्च गणीय। आश्चर्य की बात यह है कि जो विभाजन महर्षि पाराशर ने किया है, आधुनिक वनस्पति विज्ञान का विभाजन भी इससे मिलता-जुलता है।
उदाहरण के लिए- शमीगणीय विभाजन देखें-
सभी तु तुण्दमण्डला विषमविदलास्मृता।
पञ्चमुक्तदलैश्चैव युक्तजालकरुर्णितै:॥
दशभि: केशरैर्विद्यात् समि पुष्पस्य लक्षणम्।
सभी सिम्बिफला ज्ञेया पार्श्च बीजा भवेत् सा॥
वक्रं विकर्णिकं पुष्पं शुकाख्य पुष्पमेव च
एतैश्च पुष्पभेदैस्तु भिद्यन्ते समिजातय:॥
वृक्षायुर्वेद-पुष्पांगसूत्राध्
पराशर के अनुसार - आधुनिक मान्यता
तुण्डमण्डल - क़थ्दृध्र्ड्ढद्धद्म ण्न्र्द्रदृढ़ठ्ठथ्र्द्वद्म
विषम विदल - छदड्ढद्दद्वठ्ठथ् ड़दृद्धदृथ्थ्ठ्ठ थ्दृडड्ढद्म
पंच मुक्तदल - क़त्ध्ड्ढद्यद्धद्वड्ढ घ्ड्ढद्यठ्ठथ्द्म
युक्त जालिका - च्न्र्दड्ढद्मद्रण्ठ्ठथ्दृद्वद्
दश प्रिकेसर - च्र्ड्ढद च्द्यठ्ठदथ्र्ड्ढदद्म
इसी प्रकार अन्य विभाजन भी हैं। संस्कृत भाषा में इन नामों की उपयुक्तता और अभिव्यक्ति के कारण सर विलियम जोन्स ने कहा था ‘यदि लिनियस (आधुनिक वर्गीकरण विज्ञान का जनक) ने संस्कृत सीख ली होती तो उसके द्वारा वह अपनी नामकरण पद्धति का और अधिक विकास कर पाता।‘
मूल से जल का पीना-वृक्षों द्वारा द्रव आहार लेने का ज्ञान भारतीयों को था। अत: उनका नाम पादप, जो मूल से पानी पीता है, रखा गया था। महाभारत के शांतिपर्व में वर्णन आता है।
वक्त्रेणोत्पलनालेन यथोर्ध्वं जलमाददेत।
तथा पवनसंयुक्त: पादै: पिबति पादप:॥ जैसे कमल नाल को मुख में रखकर अवचूषण करने से पानी पिया जा सकता है, ठीक वैसे ही पौधे वायु की सहायता से मूलों के द्वारा पानी पीते हैं।
वनस्पतियों के रोग-वराह मिहिर की ‘बृहत्संहिता‘ में चार प्रकार के वनस्पतियों के रोगों का वर्णन है, आधुनिक विवरण भी उसकी पुष्टि करते हैं।
बृहत् संहिता आधुनिक
(१) पाण्डु पत्रता - पर्णों की पाण्डुता
(क्ण्दृथ्दृद्धदृद्मत्द्म दृढ थ्ड्ढठ्ठध्ड्ढद्म)
(२) प्रवाल अवृद्धि - कलियों का पतन
(क़ठ्ठथ्थ्त्दढ़ दृढ डद्वड्डद्म)
(३) शाखा शोष - डालियों का सूखना
(क़्द्धन्र्त्दढ़ द्वद्र दृढ एद्धठ्ठदड़ण्ड्ढद्म)
(४) रस स्रुति - रस नि:स्राव
(कन्द्वड्डठ्ठद्यत्दृद दृढ द्मठ्ठद्र)
आनुवंशिकता- ॠ क्दृदड़त्द्मड्ढ क्तत्द्मद्यदृद्धन्र् दृढ च्ड़त्ड्ढदड़ड्ढ त्द क्ष्दड्डत्ठ्ठ में दिया गया है कि चरक और सुश्रुत ने विवरण दिया है कि ‘फूल के फलित अंड में वनस्पति के सभी अंग सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं, जो बाद में एक-एक करके प्रकट होते हैं।‘
जगदीश चन्द्र बसु का योगदान-
अर्वाचीन काल में भी वनस्पति शास्त्र के क्षेत्र में जिनका अप्रतिम योगदान रहा, उन महान विज्ञानी जगदीश चन्द्र बसु के बारे में देश कितना जानता है? वर्तमान काल में जगदीश चन्द्र बसु ने सिद्ध किया कि चेतना केवल मनुष्यों और पशुओं तक ही सीमित नहीं है, अपितु वह वृक्षों और जिन्हें निर्जीव पदार्थ माना जाता है, उनके अंदर भी समाहित है। इस प्रकार उन्होंने आधुनिक जगत के सामने जीवन के एकत्व को प्रकट किया। उन्होंने कहा कि निर्जीव व सजीव दोनों निरपेक्ष नहीं, अपितु सापेक्ष हैं। उनमें अंतर केवल इतना ही है कि धातुएं थोड़ी कम संवेदनशील होती हैं, वृक्ष कुछ अधिक संवेदनशील होते हैं, पशु कुछ और अधिक तथा मनुष्य सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं। इनमें डिग्री का अंतर है, परन्तु चेतना सभी के अंदर है।
सन् १८९५ के आस-पास जगदीश चन्द्र बसु वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने धात्विक डिटेक्टर में तरंगे भेजीं। उसके परिणामस्वरूप डिटेक्टर पर कुछ संकेत चित्र आए। यह प्रयोग बार-बार करने पर एक अंतर उनके ध्यान में आया कि संकेत चित्र प्रारंभ में जितने स्पष्ट आ रहे थे, बार-बार प्रयोग दोहराने पर वे थोड़ा मंद होने लगे। यह देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि जो निर्जीव हैं, उनमें प्रतिसाद कम-ज्यादा नहीं होना चाहिए, वह तो यांत्रिक होने के कारण एक जैसा होना चाहिए। प्रतिसाद का कम-ज्यादा होना तो पेशियों का स्वभाव है। उनमें जब थकान आती है तो प्रतिसाद कम होता है तथा कुछ समय आराम मिला तो प्रतिसाद अधिक होता है। अत: डिटेक्टर में प्रतिसाद कम- अधिक देखकर उन्हें शंका हुई और उन्होंने डिटेक्टर को कुछ समय आराम देकर प्रयोग को पुन: दोहराया और वे आश्चर्यचकित हो गए। क्योंकि आराम मिलने के बाद संकेत चित्र पुन: वैसे ही आने लगे। वे सोचने लगे, यह क्यों है? अपने प्रयोग को कई बार दोहराकर उन्होंने जांचा-परखा तथा यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि निर्जीव के अंदर भी संवेदनशीलता है। अंतर केवल इतना है कि वह निश्चेष्ट (इनर्ट) है।
जगदीश चन्द्र बसु ने जब यह सिद्ध किया, उस समय पश्चिम के वैज्ञानिकों की क्या हालत थी, इसका अनुभव निम्न प्रसंग से किया जा सकता है। रायल साइंटिफिक सोसायटी में जगदीश चन्द्र बसु का भाषण होने वाला था तो इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध बायोलाजिस्ट हारटांग को हॉब्ज नामक विद्वान ने कहा, आज जगदीश चन्द्र बसु का भाषण होने वाला है जिन्होंने यह सिद्ध किया है कि वनस्पतियों और निर्जीवों में भी जीवन रहता है। आप भाषण सुनने चलेंगे? हारटांग की प्रथम प्रतिक्रिया थी ‘मैं अभी होश में हूं, मैंने पी नहीं रखी है। आपने कैसे समझ लिया कि मैं ऐसी वाहियात बातों पर विश्वास करूंगा।‘ फिर भी मजा देखने की मानसिकता से वे भाषण सुनने आए। और भी लोग हंसी उड़ाने की मानसिकता से वहां आए। जगदीशचन्द्र बसु ने केवल मौखिक भाषण ही नहीं दिया अपितु यंत्रों के सहारे प्रत्यक्ष प्रयोगों का प्रदर्शन करते हुए जब अपनी बात सिद्ध करना प्रारंभ किया, तो हॉल में बैठे सभी विद्वान् जो प्रारंभ में उपेक्षा की नजर से देख रहे थे, १५ मिनट बीतते-बीतते तालियां बजाने लगे। सारा हाल उनकी तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। भाषण व प्रयोगों के अंत में जब सभा के अध्यक्ष ने पूछा कि किसी को कोई शंका, कोई प्रश्न हो तो वक्ता से पूछ सकते हैं। तीन बार दोहराने पर भी जब कोई नहीं बोला, तब प्रो. हॉब्ज खड़े हुए और उन्होंने कहा कि कुछ भी पूछने लायक नहीं है। बसु महोदय ने अत्यंत प्रामाणिकता से अपनी बात सिद्ध की है। उनके भाषण व प्रयोग को देखकर मन में शंका उठती थी, परन्तु अगले ही क्षण दूसरे प्रयोग को देखकर उस शंका का निरसन हो जाता था। रॉयल सोसायटी के अध्यक्ष ने भी जगदीशचन्द्र बसु के जीवन के एकीकरण को सिद्ध करने की दिशा के सफल प्रयत्न के प्रति विश्वास प्रकट किया।
आगे चलकर बसु महोदय ने वृक्षों के ऊपर बहुत गहराई से प्रयोग किए। अपने साथ पौधों को लेकर दुनिया की यात्रा की। अनेक संवेदनशील यंत्र बनाये जिनमें वृक्षों के अन्दर होने वाले सूक्ष्मतम परिवर्तन प्रत्यक्ष देखे जा सकते थे। उन्होंने क्रेस्कोग्राफ नामक यंत्र बनाया, जो संवेदनाओं को एक करोड़ गुना अधिक बड़ा कर बताता था। जब पौधों को वे यंत्र लगा दिए जाते थे, तो पौधे दिन भर में क्या-क्या अनुभूतियां उन्हें हो रही हैं, इसकी कहानी मानों वे स्वयं कहने लगते थे। इस प्रकार उन्होंने अपने प्रयोगों और अनुभवों को छदत्द्यन्र् दृढ थ्त्ढड्ढ, ध्दृत्ड़ड्ढ दृढ थ्त्ढड्ढ आदि लेखों में अभिव्यक्त किया तथा वनस्पति में, पशुओं में, पक्षियों में, कीड़े-मकोड़ों और सारी सृष्टि में चेतना है, इस प्राचीन अवधारणा को आधुनिक युग में सिद्ध किया।