क्यों आत्मविस्मृत हुए हम?

दूसरी थोड़ी पुरानी घटना है। पुरी के पूर्व शंकराचार्य भारती कृष्ण तीर्थ जी ने अपनी साधना द्वारा शुल्ब सूत्रों और वेद की पृष्ठभूमि से गणित के कुछ अद्भुत सूत्रों और उपसूत्रों का आविष्कार किया। इन १६ मुख्य सूत्रों और १३ उपसूत्रों के द्वारा सभी प्रकार की गणितीय गणनाएं, समस्याएं अत्यंत सरलता और शीघ्रता से हल की जा सकती हैं। इन सूत्रों के आधार पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘वैदिक मैथेमेटिक्स।‘ पुस्तक के महत्व को ध्यान में रखते हुए मुम्बई में टाटा द्वारा मूलभूत शोध हेतु स्थापित संस्थान (टाटा इंस्टीट्यूट फार फन्डामेंटल रिसर्च) में कुछ लोग गये और वहां के प्रमुख से आग्रह किया कि गणित के क्षेत्र में यह एक मौलिक योगदान है, इसका परीक्षण किया जाये तथा इसे पुस्तकालय में रखा जाये। तब इस संस्थान ने इसे यह कहकर स्वीकृति नहीं दी कि हमारा इस पर विश्वास नहीं है। जिस पुस्तक को नकार दिया गया वह देश में विचार का विषय आगे चलकर तब बनी जब एक विदेशी गणितज्ञ निकोलस ने इंग्लैंड से मुम्बई आकर कुछ गणितज्ञों के सामने इन अद्भुत सूत्रों के प्रयोग बताकर कहा कि यह तो ‘मैजिक‘ है। इसका प्रचार-प्रसार टाइम्स आफ इंडिया ने किया। यह घटना बताती है कि एक विदेशी इसका महत्व न बतलाता तो उसे मानने की हमारी मानसिकता नहीं थी।


३-एक तीसरी घटना-भूतपूर्व मानव संसाधन विकास तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डा.मुरली मनोहर जोशी १९६२ में उत्तर प्रदेश की पाठ्यक्रम समिति के सदस्य बने। अपने अध्ययन के दौरान उनके ध्यान में आया कि गणित का विद्यार्थी जिस पायथागोरस थ्योरम के कारण भयभीत रहता है उस प्रमेय को पायथागोरस के पूर्व भारत वर्ष में बोधायन ने हल किया था। पायथागोरस की पद्धति जहां दीर्घ, क्लिष्ट व उबाऊ थी वहीं बोधायन की पद्धति अत्यंत संक्षिप्त व सरल थी। अत: उन्होंने पाठ्यक्रम समिति के सदस्यों को यह तथ्य बताया और आग्रह किया कि हमारे यहां इसे बोधायन प्रमेय कहा जाए तो इससे जहां एक ओर विद्यार्थियों को एक सरल पद्धति मिलेगी, वहीं दूसरी ओर हमारे देश का यह अवदान है, यह जानकर उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। लेकिन पाठ्यक्रम समिति के सदस्य तैयार नहीं हुए। लोगों को सहमत करने का वे प्रयत्न करते रहे। इसी कड़ी में एक और तथ्य उनके ध्यान में आया। एडवर्ड टेलर, जो विश्व के एक प्रमुख भौतिक शास्त्री रहे तथा हाइड्रोजन बम, परमाणु बम बनाने में जिनका योगदान रहा और जो नोबल पुरस्कार से सम्मानित हुए, ने एक पुस्तक लिखी है ‘सिम्पलिसिटी एंड साइंस‘। इस पुस्तक में उन्होंने कहा कि विज्ञान की पढ़ाई, दुरूह, जटिल व उबाऊ नहीं होनी चाहिए अपितु सरल, सुगम व आनंद देने वाली होनी चाहिए। इस दृष्टि से गणितीय समस्याएं कितनी सरलता से हल हो सकती हैं, उसके उदाहरण के रूप में उन्होंने बोधायन प्रमेय का उदाहरण दिया था। डा.जोशी ने जब एडवर्ड टेलर के प्रमाण को पाठ्यक्रम समिति को बताया, तब उन्होंने कहा अच्छा आपका इतना आग्रह है तो हम इसे ‘पायथागोरस बोधायन प्रमेय‘ कर देते हैं।

उपर्युक्त घटनाएं बताती हैं कि साधारणत: समाज में भारत में विज्ञान के विकास की कोई परंपरा थी, इस संबंध में विश्वास ही नहीं है। एक अन्य तथ्य भी अनुभव में आता है कि देश में प्राथमिक शाला से लेकर स्नातक, स्नातकोत्तर अथवा शोध छात्रों से कहीं भी चर्चा हो और उनसे प्रश्न किया जाए कि आपने प्रारंभ से अब तक जो अध्ययन किया है, उसमें आपके अध्ययन का विषय चाहे राजनीति शास्त्र रहा हो या अर्थशास्त्र या विज्ञान के विविध विषय-उन विषयों में भारत वर्ष के चिंतन अथवा अवदान के संदर्भ में कहीं कुछ पढ़ा है, तो साधारणत: उत्तर नकारात्मक मिलता है। इस प्रकार सामान्य विद्यार्थी से लेकर देश के प्रमुख व्यक्तियों तक में अपने देश की विज्ञान परंपरा और उसके जनक के संदर्भ में जानकारी का अभाव दिखाई देता है।

विस्मृति का कारण
भारत वर्ष की आने वाली पीढ़ी में अपनी परंपरा, संस्कृति और इतिहास के प्रति गौरव का भाव न रहे, इस हेतु १८३५ में लार्ड थॉमस बॉबिंग्टन मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा पद्धति लागू की। धीरे-धीरे संस्कृत पाठशालाएं समाप्त कर अंग्रेजी स्कूल अनिवार्य हुए। इन स्कूलों के लिए जो पाठ्यक्रम बना, जो पुस्तकें बनीं, उनमें किसी भी विषय में, विशेषकर विज्ञान के क्षेत्र में भारत का कोई अवदान है, इस प्रकार का संदर्भ नहीं आने दिया गया। परिणामस्वरूप कालांतर में इन विद्यालयों से पढ़कर निकले उपाधि-धारी भारत के अवदान की जानकारी से वंचित रहते थे।

अंग्रेजों का तो साम्राज्यवादी उद्देश्य था, अत: उन्होंने शिक्षा को यहां की जड़ों से काटने का प्रयत्न किया। परंतु देश आजाद होने के बाद कल्पना थी कि देश में आत्मविश्वास का भाव जगाने हेतु शिक्षा में भारत की परंपरागत देन को जोड़ा जायेगा, परंतु दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद भी वही पाठ्यक्रम जारी रहे जो विश्व में यूरोपीय देशों की देन को अभिव्यक्त करने वाले थे। परिणामस्वरूप पूर्वकाल में भारतवर्ष में विविध विषयों में हुए अध्ययन, प्रयोग और निष्कर्ष १७० वर्षों से चली आ रही इस शिक्षा का अंग नहीं बन पाये। भारतीयता से कटे इस पाठ्यक्रम को पढ़ते हुए समाज के मानस पर एक दुष्परिणाम हुआ। दुनिया में विकास की दृष्टि से जो कुछ भी देन है वह यूरोप की दी हुई है, इसमें हमारा भी कोई योगदान रहा है, कुछ हो सकता है, इस प्रकार के स्वाभिमान के स्थान पर अनुकरण की, दासता की मनोवृत्ति चारों ओर दिखाई देती है।

विस्मृति का परिणाम
समाज में अपने बारे में आत्मविश्वास के अभाव की स्थिति जानने के लिए वर्तमान राष्ट्रपति एवं प्रख्यात वैज्ञानिक डा.अब्दुल कलाम के दो अनुभव सहायक होंगे। डा.कलाम की आंखों में एक समर्थ एवं विकसित भारत का सपना है। इसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘इंडिया टू थाउसैण्ड ट्वेन्टी- ए विजन फार न्यू मिलेनियम‘ में व्यक्त किया है। प्रस्तुत पुस्तक में जहां एक ओर विकसित भारत के निर्माण के मार्ग का वर्णन है वहीं दूसरी ओर इसमें सबसे बड़ी बाधा कौन सी है, इसे भी उन्होंने अपने जीवन के दो अनुभवों से अभिव्यक्त किया है।

प्रथम अनुभव में वे लिखते हैं कि ‘मेरे कमरे की दीवार पर एक बहुरंगी कैलेंडर टंगा है। यह सुंदर कैलेंडर जर्मनी में छपा है तथा इसमें आकाशस्थ उपग्रहों द्वारा यूरोप और अफ्रीका के खींचे गये चित्र अंकित हैं। कोई भी व्यक्ति इन चित्रों को देखता है तो प्रभावित होता है। परंतु जब उसे यह बताया जाता है कि जो चित्र इसमें छपे हैं, वे भारतीय दूरसंवेदी उपग्रह ने खींचे हैं तो उसके चेहरे पर अविश्वास के भाव उभरते हैं और वे तब तक शांत नहीं होते जब तक उस कैलेंडर में नीचे उक्त कंपनी द्वारा भारतीय दूरसंवेदी उपग्रह द्वारा खींचे गये चित्रों की प्राप्ति का कृतज्ञता ज्ञापन वे नहीं पढ़ लेते।‘

दूसरे अनुभव में वे लिखते हैं ‘एक बार मैं एक रात्रिभोज में आमंत्रित था, जहां बाहर के अनेक वैज्ञानिक तथा भारत के कुछ प्रमुख लोग आमंत्रित थे। वहां चर्चा चलते-चलते राकेट की तकनीक के विषय पर चली गई। किसी ने कहा चीनी लोगों ने हजार वर्ष पूर्व बारूद की खोज की, बाद में तेरहवीं सदी में इस बारूद की सहायता से अग्नि तीरों का प्रयोग युद्धों में प्रारंभ हुआ। इस चर्चा में भाग लेते हुए मैंने अपना एक अनुभव बताया कि कुछ समय पूर्व मैं इंग्लैण्ड गया था, वहां लंदन के पास वुलीच नामक स्थान पर रोटुंडा नाम का संग्रहालय है। इस संग्रहालय में टीपू के श्रीरंगपट्टनम्‌ में अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में टीपू सुल्तान की सेना द्वारा प्रयुक्त राकेट देखे और यह विश्व में राकेट का युद्ध में सर्वप्रथम प्रयोग था। मेरे इतना कहते ही एक प्रमुख भारतीय ने तुरंत टिप्पणी की कि वह तकनीक फ्र्ेंच लोगों ने टीपू को दी थी। इस पर मैंने नम्रतापूर्वक उनको कहा आप जो कह रहे हैं वह ठीक नहीं है। मैं आपको प्रमाण बताऊंगा। कुछ समय बाद मैंने उन्हें प्रख्यात व्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लॉवेल की पुस्तक ‘द ओरिजिन्स एन्ड इन्टरनल इकानामिक्स आफ स्पेश एक्सप्लोरेशन‘ बताई, जिसमें वे लिखते हैं कि विलियम कोनग्रेव्ह ने टीपू की सेना द्वारा प्रयुक्त रॉकेट का अध्ययन किया, उसमें कुछ सुधार कर सन्‌ १८०५ में तत्कालीन व्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट तथा युद्ध सचिव क्रेसर लीध के सामने प्रस्तुत किया। वे इसे देखकर प्रभावित हुए और उन्होंने इसे सेना में सम्मिलित करने की स्वीकृति दी तथा १८०६ में नेपोलियन के साथ वाउलांग हारबर के पास हुए युद्ध तथा १८०७ में कोपेनहेगन पर किये आक्रमण में उनका प्रयोग किया।

पुस्तक में रेखांकित अंश को बड़े ध्यानपूर्वक पढ़कर वह पुस्तक मेरे हाथ में देते हुए उन विशिष्ट भारतीय सज्जन ने कहा कि बड़ा रोचक मामला है। उन्हें यह रोचक बात लगी, परंतु किसी प्रकार का गौरव का भाव इस भारतीय खोज के प्रति नहीं जगा। दुर्भाग्य से भारत में हम अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक पुरूषों को भूल चुके हैं। व्रिटिश लोग कोनग्रेव्ह के बारे में सारी जानकारी रखते हैं, पर हम कुछ नहीं जानते उन महान इंजीनियरों के बारे में, जिन्होंने टीपू की सेना के लिए रॉकेट बनाया। इसका कारण यह है कि विदेशियत का प्रभाव और अपने बारे में हीनता बोध की मानसिक ग्रंथि से देश के बुद्धिमान लोग ग्रस्त हैं और यह मानसिकता देश के लिए सबसे बड़ी बाधा है।

( क्रमश: )