इसी के साथ देश में स्वाभिमान जगाने हेतु प्रख्यात वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय का मद्रास में हिन्दू रसायन शास्त्र पर सन् १९१८ में दिया गया एक भाषण विचारणीय है, जिसमें उन्होंने अपने देश के अवदान के बारे में गौरव बोध का आह्वान किया था। उनके शब्द थे - "रसायन शास्त्र में हमारा प्राचीन भूतकालीन योगदान लज्जा का विषय नहीं था। प्राचीन भारत में विकसित विज्ञान की सभी शाखाओं के बारे में मेरा अंतरंग लज्जानत नहीं अपितु गर्वोन्नत है।"
आज देश में अपने बारे में, अपनी परंपराओं और देश की क्षमता के बारे में विद्यमान मानसिकता में परिवर्तन लाने हेतु कुछ मूलभूत बातों का विचार करना पड़ेगा। सर्वप्रथम तो हमारे देश में एक धारणा बनी हुई है कि पश्चिम का व्यक्ति बुद्धिजीवी, तर्कशील तथा प्रयोगशील होता है और भारत का व्यक्ति ग्रंथ को ही प्रमाण मानने वाला, अंधश्रद्धालु तथा प्रयोग से दूर भागने वाला होता है। परंतु वास्तविक स्थिति क्या है, आइये हम थोड़ा पश्चिम तथा भारत के इतिहास पर एक नजर डालें।
पश्चिम में तर्क तथा प्रयोगों के प्रति दृष्टि
पश्चिम में प्रायोगिक विज्ञान का प्रारंभ साधारणत: ४५० वर्ष पूर्व गैलीलियो से माना जाता है। उसके पूर्व कोपरनिकस ने यह वैज्ञानिक मान्यता स्थापित की थी कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके आसपास चक्कर लगाती है। परंतु उस समय साधारण समाज की धारणा, मानसिकता कैसी थी, इसका विश्लेषण करते हैं तो ध्यान में आता है कि उस समय जीवन के किसी भी प्रश्न के उत्तर के संदर्भ में अरस्तू प्रमाण था। कोई भी प्रश्न, कोई भी समस्या खड़ी हुई तो इस संदर्भ में अरस्तू ने क्या कहा, यह खोजने की एक सामान्य प्रवृत्ति थी। इस बारे में एक मनोरंजक कथानक प्रचलित है। एक बार लंदन में किसी हाल में बैठकर कुछ-विद्वान परस्पर विचार-विमर्श कर रहे थे। विचार-विमर्श का विषय था, घोड़े के मुंह में कितने दांत होते हैं? अलग-अलग विद्वान अलग-अलग संख्या बता रहे थे। परिणामस्वरूप निर्णय नहीं हो पा रहा था। एक युवक पास में बैठा इनका वार्तालाप उत्सुकता से सुन रहा था। इतने में एक विद्वान बोला- अंतिम निर्णय के लिए देखा जाये कि घोड़े के दांत के विषय में अरस्तू ने क्या कहा है? अत: एक विद्वान पास के पुस्तकालय में अरस्तू की पुस्तक खोजने गया। इस बीच यह चर्चा सुनने वाला युवक उठा और उस हाल से बाहर चला गया। वह बाहर चला गया है इस ओर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ। परन्तु कुछ समय बाद लौटकर जब वह वापस हाल में आया तो हठात् सब उसकी ओर देखने लगे, क्योंकि वापस आते समय उसके साथ एक जीवित घोड़ा था। उस घोड़े को सामने खड़ा कर उसने विद्वानों से कहा कि अरस्तू को क्यों परेशान करते हो, यह घोड़ा खड़ा है, इसके दांत गिनकर निर्णय कर लो। (परिवर्तनशील समाज के लिए शाश्वत मूल्य, स्वामी रंगनाथानंद, पृष्ठ १९४)
गैलीलियो के पहले सारे यूरोप में मान्यता थी कि भारी वजन वाली वस्तु हल्की वजन वाली वस्तु से अधिक वेग से गिरेगी, क्योंकि अरस्तू ने कहा था कि एक पौंड तथा दस पौंड का पत्थर यदि ऊपर से फेंका जाये तो दस पौंड का पत्थर दस गुना वेग से गिरेगा। गैलीलियो ने इस मान्यता को चुनौती दी और कहा वस्तु चाहे एक पौंड की हो या दस पौंड की वायु का प्रतिरोध यदि छोड़ दिया जाये तो दोनों एक साथ जमीन पर गिरेंगी। जैसे ही गैलीलियो ने इस मान्यता का प्रतिपादन किया, सारा शहर उस पर टूट पड़ा- तुम अरस्तू से अधिक समझदार समझते हो अपने को? इस पर गैलीलियो ने कहा, जो मैंने कहा वह करके बता सकता हूं। इसे सुन सब लोगों में आश्चर्य और उत्सुकता जगी और जिस दिन गैलीलियो अपनी बात को प्रयोग द्वारा सिद्ध करने वाला था, उस दिन पीसा की प्रसिद्ध मीनार के पास सारा नगर उमड़ पड़ा। गैलीलियो मीनार पर चढ़ा, सारे लोग सांस रोके ऊपर देखने लगे। इसी समय गैलीलियो ने एक और दस पौंड वजन के दोनों पत्थर एक साथ छोड़े और आश्चर्यचकित लोगों ने देखा- दोनों पत्थर एक साथ जमीन पर गिरे। प्रत्यक्ष अपनी आंखों से यह प्रयोग देखने के बाद भी लोगों की प्रतिक्रिया थी, गैलीलियो जरूर काला जादू जानता है, अन्यथा अरस्तू कभी गलत हो सकते हैं क्या? यह घटना बताती है कि आज से ४५० वर्ष पूर्व यूरोप में कैसी मानसिकता थी?
अंग्रेज स्वयं को बड़ा बुद्धिमान मानते हैं। परन्तु वे जब हिन्दुस्थान आये तो उससे पहले उन्होंने कभी रुई नहीं देखी थी। अत: कपास का पेड़, उससे निकाली गई रुई, उसका धागा और फिर कपड़ा उनके लिए नई चीज थी। उन्हें तो सिर्फ यही ज्ञान था कि ऊन भेड़ पर होती है और उससे वस्त्र बुनते हैं। अत: वे कहते थे कि यह हिन्दुस्थानी बड़ा चालाक है। यह ऊन जो भेड़ पर होनी चाहिए, वह यह पेड़ पर उगाता है और उससे कपड़ा बनाता है। (भारत में विज्ञान... डा. मुरली मनोहर जोशी, पृ.-१३) ये तथ्य यूरोपीय मानसिकता व प्रयोगशीलता के प्रति उनकी दृष्टि को बताते हैं।
यह ठीक है कि पिछले १५० वर्षों में विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में यूरोप में अप्रतिम प्रगति हुई, पर उससे पूर्व का समाज कैसा था? उसमें अंधश्रद्धाएं हावी थीं या तर्क? बाइबिल या चर्च की मान्यताओं के विपरीत किसी ने कुछ कहा, प्रयोग किया, तो उसके साथ कैसा व्यवहार किया गया, इस पर थोड़ा दृष्टिपात करेंगे तो यूरोप की मानसिकता का पता लगेगा।
गैलीलियो के जन्म से पूर्व लगभग १५०० वर्षों तक यूरोप पर अरस्तू के विचारों व धारणाओं का राज्य रहा। क्लौडियल टॉलेमी ने ई. सन् १३९ में अरस्तू के अनुसार पृथ्वी केन्द्रित विश्व की मान्यता स्थापित की, जिसमें पृथ्वी केन्द्र में और सूर्य उसके आसपास चक्कर लगाता है। इन मान्यताओं को चर्च का संरक्षण मिला और ये मान्यताएं शताब्दियों तक समूचे पश्चिमी जगत में हावी रहीं। पोलैंड में जन्मे कोपरनिकस ने सन् १५४३ में टॉलेमी की धारणा के विपरीत यह प्रतिपादित किया कि सूर्य केन्द्र में है और पृथ्वी उसके आसपास चक्कर लगाती है। उसकी यह स्थापना पश्चिमी विज्ञान के इतिहास का प्रारंभ बिन्दु बन गई। चर्च विरुद्ध इस बात का जिस पुस्तक में प्रतिपादन किया गया, उसके छपने के पूर्व कोपरनिकस का देहांत हो गया। परन्तु बाद में जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई तो उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
गैलीलियो ने दूरबीन का आविष्कार किया और उसके द्वारा आकाश का निरीक्षण किया और उसने पाया कि सूर्य केन्द्र में होने का कोपरनिकस का सिद्धांत सही है। इस पर टॉलेमी को मानने वाले लोगों ने दूरबीन के प्रयोग को धर्मविरुद्ध कार्य माना। धर्मगुरुओं ने कोपरनिकस को सही मानना भी पवित्र शास्त्रों के विरुद्ध है, ऐसा कहकर गैलीलियो से माफी मंगवा कर आगे से ऐसा धर्मविरुद्ध कार्य न करने का वचन लिया और उसे घर में नजरबंद किया। इस नजरबंदी की अवस्था में उसने भौतिक शास्त्र पर ग्रंथ लिखा, जिसके छपने के पूर्व ही वह अंधा हो गया और नजरबंदी की अवस्था में ही सन् १६४२ में ७८ वर्ष की अवस्था में दुनिया को छोड़कर चला गया।
कोपरनिकस के सूर्य केन्द्रिक सिद्धांत का समर्थन १५४६ में डेनमार्क में जन्मे खगोलवेत्ता टाइको व्रूनो ने किया। गणित और धातुशास्त्र में निष्णात व्रूनो ने ७५० तारों को पहचाना। बिना दूरबीन के अवलोकन से उसने ये उपलब्धियां प्राप्त कीं। विश्व में पृथ्वी जैसे अनेक जगत हैं, ऐसी उसकी स्थापनाओं से क्रोधित हो पोप और पादरियों ने उसे आठ वर्ष तक कैद में रखा और अपने सिद्धांतों से समझौता न करने व माफी न मांगने के कारण सन् १६०० में उसे जिंदा जला दिया।
व्रूनो के सहयोगी रहे स्वतंत्र प्रतिभा के धनी जर्मनी में १५७१ में जन्मे जोन केप्लर ने खगोल शास्त्र का गहन अध्ययन कर ग्रहों की स्थिति व गति के नियम खोजे व उनकी कक्षाओं के नक्शे तैयार किये। उसकी इस समझ को धर्मशास्त्र विरुद्ध मानकर कैथोलिकों ने उस पर हमला किया और वह भागता रहा तथा गरीबी व बीमारी की अवस्था में लीस नगर से जाते समय एक धर्मशाला में १६३० में उसकी दु:खद मृत्यु हो गई।
अपने मत अथवा स्थापित मान्यता के विरुद्ध कहने वाले को जिंदा जलाने, कैद में रखने या घुट-घुट कर मरने को मजबूर करने वाले ये उदाहरण बताते हैं कि ४०० वर्ष पूर्व तक तर्क एवं प्रयोगशीलता के प्रति पश्चिम में क्या दृष्टि थी।
(क्रमश:)