क्या विज्ञान का जन्म पश्चिम में हुआ था?

( इस लेख में दिये गये विचार श्री चन्द्रकान्त राजू द्वारा रचित पुस्तक 'क्या विज्ञान पश्चिम में शुरू हुआ?' से लिये गये हैं। इस नई किताब में पश्चिम के इस पूर्वाग्रहपूर्ण इतिहास को चुनौती दी गयी है और बताया गया है कि क्रुसेड और इंक्विजिशन का इतिहास पर क्या असर पड़ा। मूलत: अंग्रेजी में लिखित इस किताब का हिंदी संस्करण प्रकाशित किया है दानिश बुक्स, दिल्ली ने जबकि अंग्रेजी संस्करण मल्टीवर्सिटी और सिटिजंस इंटरनेशनल, पेनांग, मलेशिया से प्रकाशित है। यह किताब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजिलिस के प्रो. विनय लाल द्वारा संपादित ' डिस्सेंटिंग नालेजेस' (Dissectimg Knowleges) पुस्तिका श्रृंखला में आठवीं है। )

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मजहब और सियासत के मेल से इतिहास विकृत होता है। पश्चिम में सियासत के साथ मजहब का गठजोड़ 1700 साल पहले शुरू हुआ। इसका पश्चिम के इतिहास पर क्या असर हुआ? इसकी एक झलक दिखती है विज्ञान के इतिहास लेखन में। पश्चिमी इतिहास हमें बतलाता है कि विज्ञान है तो सार्वभौमिक, मगर यह जन्मा सिर्फ पश्चिम में : जहाँ वह ग्रीक लोगों के बीच शुरू हुआ और फिर कोपर्निकस और न्यूटन की क्रांतियों के साथ यूरोप में फैला. चर्च और सियासत के मेल से बना यह इतिहास पूर्वाग्रहों से भरा है।


क्रुसेड के दौरान, टोलेडो में कब्जा की गईं अरबी किताबों का सामूहिक अनुवाद लैटिन में किया गया. उस समय यूरोप में इस्लाम के खिलाफ तीखा धार्मिक उन्माद फैला था तो इस्लामी स्रोतों से सीखने को कैसे उचित ठहराया जाता? लिहाजा यह कमाल का दावा किया गया कि इन किताबों में जो भी ज्ञान है वह यूनानियों की दें है, अरबों ने तो सिर्फ उसे सदियों से संभाल कर रखा. इस कहानी के अनुसार ज्यामिति की शुरुआत युक्लिड से और खगोलविज्ञान की क्लॉडियस टॉलेमी से हुई. बहुत से भोले लोगों ने प्राथमिक तथ्यों की जाँच किए बिना इस पर विश्वास कर लिया. जबकि हकीकत यह है कि ''युक्लिड'' और ''क्लॉडियस टॉलेमी'' के वजूद के लिए भी कोई गंभीर सबूत नहीं हैं और न ही कोई विश्वस्नीय तथ्य कि इन लोगों का क्रमशः एलिमेंट्स और अल्माजेस्ट नाम की किताबों से किसी तरह का संबंध था, जिनका श्रेय उन्हें दिया जाता है. इसके विपरीत राजू की किताब से ऐसे अनेक ठोस सबूतों का पता चलता है जो बताते हैं कि ये किताबें काफी बाद की हैं.

इसी प्रकार, इंक्विजिशन के दौरान यूरोपियों ने गैर-ईसाई सूत्रों का जिक्र कभी नहीं किया, क्योंकि उन्हें डर था कि उन्हें विधर्मी ठहरा कर यातनाएँ दे कर मार दिया जाएगा. इसलिए वे नियमित रूप से सभी विचारों के ''स्वतंत्र रूप से पुनर्खोज'' का दावा करते थे. वास्तव में कोपर्निकस ने तो अरब लेखकों से शब्दशः नक़ल किया, जबकि न्यूटन भारत से आयातित कैलकुलस पर अत्यधिक निर्भर था.

तथ्यों के आलोक में विज्ञान की पश्चिम में उत्पत्ति या विज्ञान के पश्चिमी मूल की भव्य कथा अब बिखर गई है. यह किस्सा संचारण (यूनानियों से) और गैर-संचारण (दूसरे से) के झूठे दावों पर आधारित था, जिसके लिए सबूत के दोहरे मानदंडों का इस्तेमाल किया गया.

यूरोप में आयातित ज्ञान का धर्मशास्त्रीय-रूप-से-सही स्रोत ही नहीं बताया गया, क्रुसेड के बाद के ईसाई धर्मशास्त्र के अनुकूल उसकी पुनर्व्याख्या भी की गई. इस तरह विज्ञान में मजहब की व्यवस्थित घुसपैठ हुई. उदहारण के लिए, न्यूटन के नियमों के लिए अंग्रेजी में ''कानून'' (लॉ) शब्द का इस्तेमाल किया जाता है. क्रुसेड के बाद क्रिस्तानी धर्मशास्त्र में ऐसा माना गया कि भगवान दुनिया को दैवी कानूनों के तहत संचालित करता है और न्यूटन ने दावा किया कि उसे ईश्वर के इन कानूनों का पता चल गया है. उसकी सोच पूरी तरह गलत थी. उपनिवेशवादी और नस्लवादी इतिहासकारों ने इसी आधार पर ज्ञान की अन्य सभी प्रणालियों को यह कह कर गलत ठहराया कि जो पश्चिम कि नक़ल नहीं करता वह विज्ञान हो ही नहीं सकता. इस चालबाजी के साथ, धर्मशास्त्र के रंग में रँगे यूरोपीय ''एथ्नोमैथमेटिक्स'' को सार्वभौमिक करार दिया गया. यह भ्रामक और झूठा प्रचार लोगों के जेहन पर इस कदर हावी हो गया कि लोग यह मानने लगे कि वे पिछडे इसलिए हैं क्योंकि उनके पास विज्ञान नहीं है और इसका इलाज सिर्फ यह है कि वे पश्चिम की नक़ल करें. इसलिए आजादी के बाद भी धर्मशास्त्र से रँगे मैथमेटिक्स और विज्ञान की बिना समीक्षा किये इन्हें धर्मनिरपेक्ष ज्ञान के रूप में स्कूली बच्चों को पढ़ाया जाता है.

राजू ने अपनी उक्त किताब के जरिये इस विभ्रम को उजागर किया है और बताया है कि इसका असली इलाज ''विज्ञान में स्वराज'' ही हो सकता है न कि पश्चिम कि नक़ल करना । इसके लिए गणित और विज्ञान को व्यावहारिक उद्देश्यों से जोड़कर पश्चिमी धर्मशास्त्र से दूर रखना होगा और पश्चिमी सामाजिक स्वीकृति के मानदंड से खुद को अलग करना होगा. चूँकि ज्यादातर लोग विज्ञान के मामले में अनपढ़-जैसे हैं, वे स्वयं तय नहीं कर पाते कि अच्छा या वास्तविक विज्ञान क्या है और दूसरों द्वारा फैलाए गए अफसानों के घेरे में फँस जाते हैं. इसलिए ''विज्ञान में स्वराज'' की खातिर पहला जरूरी कदम है विज्ञान के पश्चिमी इतिहास का पर्दाफाश करना और राजू की इस पुस्तक में यही किया गया है.


पुस्तक का सारांश

पश्चिमी इतिहास के मुताबिक विज्ञान ग्रीक लोगों में शुरू हुआ और यूरोप में नवजागरण के बाद विकसित हुआ. इस कहानी को तीन चरणों में गढ़ा गया था.

पहला, क्रुसेड (यानी युरोपी धर्मयुद्ध) के दौरान एक अरब किताबघर ईसाईयों के कब्जे में आया और उन किताबों का सामूहिक अनुवाद हुआ. धार्मिक उन्माद के उस माहौल में दुश्मन से सीखना कैसे उचित ठहराया जाय? इसलिये कहा गया कि इन किताबों में जो विज्ञान है वह सब ग्रीक मूल का है. दो प्रमुख मामले यूक्लिड (ज्यामिति) और क्लोडिअस टोलेमी (खगोल विज्ञान) — दोनों ही मनगढ़ंत हस्तियाँ — के द्वारा इस प्रक्रिया को इस पुस्तक में दर्शाया गया है.

दूसरा, इनक्विजिशन के दौरान, समूची दुनिया के वैज्ञानिक ज्ञान को फिर धर्मशास्त्रीय-रूप-से-सही मूल देने की कोशिश की गई यह कह कर कि यह ज्ञान दूसरों से संचारित नहीं था, बल्कि यूरोपियों ने इसकी "स्वतंत्र रूप से पुन: खोज" की. कोपर्निकस और न्यूटन (कैल्कुलस) के मामले इस "पुन: खोज द्वारा क्रांति" को दर्शाते हैं.

तीसरे, इस विनियोजित ज्ञान की पुनर्व्याख्या कर उसे क्रुसेडोत्तर क्रिस्तानी धर्मशास्त्र के अनुकूल बनाया गया. नस्लवादी और उपनिवेशवादी इतिहासकारों नें इसका फायदा उठाते हुए यह कहा कि (धर्मशास्त्रीय रूप से) "सही" विज्ञान (ज्यामिति, कैल्कुलुस, आदि) सिर्फ़ यूरोप में ही मौजूद था.

इन प्रक्रियाओं से विनियोजन अब भी जारी है।
  • विज्ञान के इतिहास की "वर्ल्ड क्लास" जालसाजी की गयी, क्रुसेड (युरोपी धर्मयुद्ध) और इंक्विजिशन के दौरान.
  • ''युक्लिड'' और ''क्लॉडियस टॉलेमी'' के वजूद के लिए भी कोई गंभीर सबूत नहीं, उनको अध्यासित किताबें बहुत बाद की.
  • कोपर्निकस ने अरब लेखकों से शब्दशः नक़ल की.
  • न्यूटन भारत से आयातित कैलकुलस पर अत्यधिक निर्भर था.
  • विकृत पश्चिमी इतिहास के साथ साथ पश्चिमी धर्मशास्त्र से रँगे मैथमेटिक्स और विज्ञान की बिना समीक्षा किये इन्हें धर्मनिरपेक्ष ज्ञान के रूप में स्कूली बच्चों को पढ़ाया जाता है.
  • ''विज्ञान में स्वराज'' की मांग : गणित और विज्ञान को व्यावहारिक उद्देश्यों से जोड़कर पश्चिमी धर्मशास्त्र से दूर रखना होगा और पश्चिमी सामाजिक स्वीकृति के मानदंड से खुद को अलग करना होगा.