विज्ञान : पश्चिम व भारतीय धारणा

पाश्चात्य व भारतीय दृष्टि से निम्न तीन प्रश्नों का संक्षिप्त विचार करते हैं:-

(१) विज्ञान माने क्या?

(२) विज्ञान की परिधि कहां तक व्याप्त है?

(३) विज्ञान की अभिव्यक्ति किस रूप में होती है?


पश्चिमी दृष्टि में

(१) कार्ल पियर्सन अपनी पुस्तक ‘क्रद्धठ्ठथ्र्थ्र्ड्ढद्ध दृढ च्ड़त्ड्ढदड़ड्ढ‘ में विज्ञान की व्याख्या करते हुए लिखता है ‘तथ्यों का विभक्तीकरण, उनकी क्रमबद्धता तथा तुलनात्मक महत्व ही विज्ञान का कार्य है। इन प्राप्त तथ्यों से व्यक्तिगत सीमित अनुभूतियों से निरपेक्ष रह निष्कर्ष प्राप्त करना ही वैज्ञानिक सोच का लक्षण है।‘ इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जिज्ञासा, प्रयोग, निरीक्षण, कारण-मीमांसा तथा निष्कर्ष-इन पांच कड़ियों की श्रृंखला के माध्यम से विज्ञान गतिमान होता है।

(२) विज्ञान की परिधि के संदर्भ में ‘इन्साइक्लोपीडिया ऑफ व्रिटानिका‘ में कहा गया है ‘लैटिन भाषा के शब्द सांयशिया (च्ड़त्ड्ढदद्यत्ठ्ठे)‘ का अर्थ ज्ञान है। इस शब्द का वर्तमान काल में प्रयोग कुछ ऐसे ज्ञान पर होता है जिसका क्षेत्र इतना व्यापक है कि कोई व्यक्ति उसके एक अंश से अधिक को नहीं समझ सकता। साइंस विषयक ज्ञान नानाविध हैं। यह अन्तर अणुविषयों से लेकर मानसिक क्रियाओं तक फैला हुआ है.... नक्षत्रों के जन्म-मरण से लेकर पक्षियों के स्थानान्तरण तक, सूक्ष्म जीवों से लेकर महान्‌ गैलेक्टिक नेबुलाओं (आकाश गंगा) तक, रवेदार कणों के उत्थान-पतन से लेकर अणुओं और व्राह्माण्डों के निर्माण और विघटन तक फैला हुआ है। इसमें प्राणियों के कार्य के ज्ञान और विचार करने के नियमों और उनमें विघ्न-बाधाओं का ज्ञान भी सम्मिलित है।

(३) विज्ञान के विकास में दो रूप माने गए। एक प्योर साइंस या शुद्ध विज्ञान तथा दूसरा अप्लाइड साइंस या व्यावहारिक विज्ञान। शुद्ध विज्ञान में व्रह्माण्ड के अंतिम सत्य एवं उसे संचालित करने वाले नियमों की खोज तथा व्यावहारिक विज्ञान के क्षेत्र में उन नियमों को समझ मानव समाज का जीवनस्तर अधिकाधिक सुविधापूर्ण हो, इस नाते विविध आविष्कार हुए। भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, जीव शास्त्र, धातु विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, गणित तथा इनकी अनेकानेक शाखाएं।

भारतीय दृष्टि में
(१) भारत में प्रथम परमाणु विज्ञानी महर्षि कणाद अपने वैशेषिक दर्शन के १०वें अध्याय में कहते हैं ‘दृष्टानां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय‘ अर्थात्‌ प्रत्यक्ष देखे हुए और अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से अथवा स्वयं और अधिक गहराई से ज्ञान प्राप्त करने हेतु रखकर किए गए प्रयोगों से अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होता है।

इसी प्रकार सामान्य कण से लेकर व्रह्माण्ड और उनका प्रयोजन जानने के लिए महर्षि गौतम न्याय दर्शन में सोलह चरण की प्रक्रिया बताते हैं। प्रमेय यानी जिसे जानना है। प्रमाण यानी वे साधन जिससे जानने का प्रयत्न करते हैं। संशय यानी जिसके कारण जांच-पड़ताल की जाती है। समाधान के सब अंगों का अलग-अलग जानना अवयव कहलाता है। उसके बाद प्रतिज्ञा यानी हाइपोथिसिस रखी जाती है। फिर हेतु, उदाहरण आदि माध्यम से सत्य तक पहुंचने का प्रयत्न, इस प्रकार की प्रक्रिया बताई गई।

(२) जानने की परिधि का भारतीय वर्णन अधिक स्पष्ट है। यहां कहा गया कि कार्य जगत्‌ याने दृष्यमान जगत्‌ और उसके समस्त व्यापार तथा जगत्‌ का कारण दोनों को जानना चाहिए। आज पश्चिम जगत्‌ को ‘आब्जर्व‘ कर रहा है। पर ‘आब्जर्वर‘ के बारे में अभी उतना नहीं जानते।

गीता के अध्याय ७ में भगवान कृष्ण कहते हैं कि व्रह्म के समग्र रूप को जानने के लिए ज्ञान-विज्ञान दोनों को जानना चाहिए, क्योंकि इन्हें जानने के बाद कुछ जानना शेष नहीं रहता। आगे वे कहते हैं कि पृथ्वी यानी ठोस, जल यानी द्रव, वायु यानी गैस, अग्नि यानी ऊर्जा, आकाश, मन, बुद्धि व अहंकार तथा यह सब जिसमें है, वह परम चेतन तत्व इस सबके बारे में जानना चाहिए।

इसी प्रकार महर्षि कणाद कहते हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्‌, काल, मन और आत्मा इन्हें जानना चाहिए। इस परिधि में जड़-चेतन सारी प्रकृति व जीव आ जाते हैं।

(३) ज्ञान-विज्ञान का अंतिम उद्देश्य जगत्‌ के अंतिम कारण की खोज है। इस दृष्टि से अनेक संदर्भों का वेदों, उपनिषदों व दर्शन ग्रंथों में उल्लेख है। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति, क्रम तथा लय प्रक्रिया, सृष्टि संचालन के नियमों का उल्लेख आता है। इसी के साथ-साथ व्यावहारिक विज्ञान की दृष्टि से भौतिकी, रसायन तथा वनस्पति शास्त्र, कृषि, गणित, नक्षत्र विज्ञान, जीवन शास्त्र, आयुर्वेद, धातुविज्ञान और विभिन्न कला-कौशल भी अध्ययन व प्रयोग का क्षेत्र था। यह संदर्भ छांदोग्योपनिषद्‌ के सप्तम अध्याय के प्रथम खंड में नारद जी और सनत कुमार के संवाद से ज्ञात होता है। एक बार नारद जी सनत कुमार जी के पास गए और प्रार्थना की कि भगवन्‌, मुझे ज्ञान दीजिए। तब सनत कुमार जी ने पूछा तुमने क्या पढ़ा है? क्या जानते हो? (छा, ७-१-१) इसके उत्तर में नारद जी कहते हैं, भगवन्‌ मैंने ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, सामवेद, इतिहास, पुराणरूप पांचवां वेद, व्याकरण, श्राद्धकल्प, गणित, ज्योतिष, विधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, देवविद्या, व्रह्म विद्या, भूत विद्या, क्षेत्र विद्या, नक्षत्र विद्या, गारुड़ मंत्र, देवजन विद्या, नृत्य, संगीत, शिल्प-ये सब पढ़ा है। मैं मंत्रवेत्ता हूं पर आत्मवेत्ता नहीं, और कहते हैं कि आत्मवेत्ता दु:ख के समुद्र से पार हो जाता है। अत: वह ज्ञान मुझे दीजिए। (छा. ७-१-२,३)

आगे के पृष्ठों में प्रायोगिक या व्यावहारिक विज्ञान के विविध क्षेत्रों और शुद्ध विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय परम्परा व योगदान के बारे में जानने का कुछ प्रयत्न करेंगे।

जब हम वेद, उपनिषद्‌, व्राह्म, आरण्यक, पुराण, महाभारत, रामायण आदि भारत का प्राचीन साहित्य पढ़ते हैं तो उसमें वर्णित कुछ घटनाएं वैज्ञानिक विकास का आभास देती हैं। जैसे उपनिषद्‌ में वर्णित घटना कि उपमन्यु◌्‌ की नेत्र ज्योति जाती है तो अश्विनी कुमार उसे पुन: ज्योति देते हैं। शाण्डिली के पति की मृत्यु पर अनसूया उसे पुन: जीवित करती है। च्यवन ऋषि का वार्धक्य अश्विनी कुमार दूर करते हैं। रावण द्वारा विभिन्न भौतिक शक्तियों पर नियंत्रण, त्रिपुरासुर के तीन नगर जमीन, आसमान व जल पर गतिमान होते थे, पौलुमी आकाशस्थ नगरवासी असुरों से अर्जुन का युद्ध, विभिन्न देवताओं के अंतरिक्ष यान, दिव्यास्त्रों का वर्णन, रामायण में इच्छानुसार चलने वाला पुष्पक विमान आदि पढ़ते हैं, तो चित्र एक विकसित सभ्यता का उभरता है। परन्तु फिर प्रश्न उठता है, क्या ये मात्र कथा-कहानी या कवि कल्पना हैं। क्योंकि यदि ऐसा हुआ था तो उसकी तकनीक क्या थी? इस तकनीक को बताने वाले ग्रंथ हैं क्या? यह जानने का प्रयत्न करने में सबसे बड़ी बाधा है, जो जानकारी है, वह संस्कृत में है और आज भी हजारों, लाखों पांडुलिपियां यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। फिर भी प्रायोगिक विज्ञान के कुछ क्षेत्रों में हुई प्रगति के प्रमाण और कुछ ग्रंथ हैं, जिनसे हम इसे जान सकते हैं।

वैज्ञानिक परम्परा
वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन-अनुसंधान की परम्परा प्राचीन काल से चली आयी है। अनेक ऋषियों ने इसके लिए जीवन खपाया। भृगु, वशिष्ठ, भारद्वाज, अत्रि, गर्ग, शौनक, शुक्र, नारद, चाक्रायण, धुंडीनाथ, नंदीश, कश्यप, अगस्त्य, परशुराम, द्रोण, दीर्घतमस आदि हुए जिन्होंने विमान विद्या, नक्षत्र विज्ञान, रसायन विज्ञान, अस्त्र-शस्त्र रचना, जहाज निर्माण और जीवन के सभी क्षेत्रों में काम किया।

उदाहरण के लिए भृगु अपने शिल्प शास्त्र में शिल्प की परिभाषा करते हुए जो लिखते हैं उससे ज्ञान की परिधि कितनी व्यापक थी, इसकी कल्पना आती है।

नानाविधानां वस्तूनां यंत्राणां कल्पसंपदा
धातुनां साधनानां च वस्तूनां शिल्पसंज्ञितम्‌।
कृषिर्जलं खनिश्चेति धातुखण्डं त्रिधाभिधम्‌॥
नौका-रथाग्नियानानां, कृतिसाधनमुच्ये।
वेश्म, प्राकार, नगररचना वास्तु संज्ञितम्‌॥ ( भृगु संहिता-३ )

भृगु दस शास्त्रों का उल्लेख करते हैं

(१) कृषि शास्त्र (२) जल शास्त्र (३) खनि शास्त्र (४) नौका शास्त्र (५) रथ शास्त्र

(६) अग्नियान शास्त्र (७) वेश्म शास्त्र (८) प्राकार शास्त्र (९) नगर रचना (१०) यंत्र शास्त्र।

इसके अतिरिक्त ३२ प्रकार की विद्याएं तथा ६४ प्रकार की कलाओं का उल्लेख आता है। इनमें धातु विज्ञान, वस्त्र विज्ञान, स्वास्थ्य, कृषि, बांध बनाना, वन रोपणी, युद्ध, शस्त्र, पुल बनाना, मुद्रा शास्त्र, नौका रथ, विमान, नगर रचना, गृह निर्माण, स्वास्थ्य, जीवन शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, भोजन बनाना, बाल संगोपन, राज्य संचालन, आमोद-प्रमोद आदि सब आते थे। इस विषय सूची को देखकर लगता है, कि इनकी परिधि संपूर्ण जीवन को व्याप्त करने वाली थी। इन विद्याओं के अनेक ग्रंथ थे, कितने ही लुप्त हो गए। कई विद्याएं, जानने वालों के साथ ही लुप्त हो गई क्योंकि हमारे यहां एक मान्यता रही कि अनाधिकारी के हाथ में विद्या नहीं जानी चाहिए। यद्यपि यह सत्य है कि बहुत-सा ज्ञान लुप्त हो गया, परन्तु आज भी लाखों पांडुलिपियां बिखरी पड़ी हैं। आवश्यकता है उनके अध्ययन, विश्लेषण और प्रयोग की। इस प्रक्रिया से शायद ज्ञान के कई नये क्षेत्र उद्घाटित हो सकते हैं। यहां हम प्राचीन तथा अर्वाचीन काल में भारतीय वैज्ञानिक प्रयोग, परम्परा एवं विकास के कुछ पहलुओं पर विचार करेंगे। इसमें व्यावहारिक विज्ञान की दृष्टि से पहले विचार करेंगे।

(क्रमश: )