भारत में तर्क व प्रयोगों के प्रति दृष्टि

भारत में हजारों वर्ष पूर्व से विद्या के क्षेत्र में पूर्ण स्वातंत्र्य रहा है। अपने विचारों के कारण यहां किसी को कैद नहीं किया गया, न ही किसी को जिंदा जलाया गया। एक उदाहरण देखें। भारत वर्ष में ज्ञान राशि ‘वेद‘ और उनके द्रष्टा ‘ऋषियों‘ के प्रति पवित्र भाव रहा है। उनके बारे में तथा बनाने वाले के बारे में भौतिकवादी चार्वाकों ने कहा ‘त्रयोवेदस्य कर्तार: भण्डधूर्तनिशाचरा:‘ अर्थात तीनों वेदों को बनाने वाले पाखंडी, धूर्त और निशाचर हैं। ऐसा विकृत वक्तव्य देने पर भी उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं हुआ बल्कि उन्हें भी एक दर्शनकार का स्थान दिया गया।


दूसरा उदाहरण देखें। मुण्डकोपनिषद्‌ में वर्णन आता है कि शौनक नामक एक बड़े गुरुकुल के अधिष्ठाता महर्षि अंगिरा के पास जाते हैं तथा उनसे पूछते हैं, किस तत्व को जानने से सब कुछ जान लिया जाता है? इसके उत्तर में महर्षि अंगिरा कहते हैं- दो विद्याएं हैं जिनसे ज्ञान प्राप्त होता है। एक परा विद्या यानी जिससे परम तत्व का ज्ञान होता है, दूसरी अपरा विद्या जिससे लौकिक व पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। परन्तु तुलनात्मक दृष्टि से अपरा विद्या से परा विद्या श्रेष्ठ है। अपरा विद्या की व्याख्या में महर्षि अंगिरा ने कहा- वेद एवं वेदांग अपरा विद्या हैं। वेदों के बारे में यह टिप्पणी उन्होंने की, पर समाज में उनके प्रति पूज्य भाव बना रहा।

हजारों वर्षों से भारत में अंधश्रद्धा या ग्रंथ प्रमाण का अंतिम स्थान नहीं रहा। इसके स्थान पर तर्क और प्रत्यक्ष अनुभव की मान्यता रही। अत: आदि शंकराचार्य ने अपने गीता भाष्य में कहा, यदि सैकड़ों श्रुतियां (ज्ञातव्य है कि उपनिषदों की श्रुतियां साक्षात्‌ अनुभव-जन्य होने से अतर्क्य मानी जाती हैं।) भी कहें कि अग्नि शीतल है और अप्रकाशक है, तो भी वह प्रमाण स्वरूप नहीं मानी जा सकती क्योंकि यह प्रत्यक्ष अनुभव के विपरीत है। (गीता अ. १८ श्लोक ६६ शांकर भाष्य)

भारत में प्रयोगों के प्रति दृष्टि कैसी थी इसे जानने के लिए भारत की संसद के स्वर्ण जयन्ती अधिवेशन के समय डा. मुरली मनोहर जोशी द्वारा दिये गये भाषण के निम्न अंश दृष्टव्य हैं-

१. ‘आज तो हमें यह बताया जाता है कि हर वैज्ञानिक खोज के लिए पश्चिम की ओर देखो। अमरीका में, जर्मनी में क्या हो रहा है? फ्रांस में, जापान में क्या हो रहा है? लेकिन आज से २००-२५० वर्ष पूर्व हालात बिल्कुल उलट थे और आज से १०००-१२००-१५०० वर्ष पूर्व तो हालात और भी उलट थे। इससे पहले कि मैं भारत की प्राचीन वैज्ञानिक परम्पराओं का उल्लेख करूं, मैं यह बताना चाहूंगा कि जो आज यह बताया जाता है कि पश्चिम में ही ‘एक्सपेरिमेंटल साइंसेस‘ पैदा हुई हैं, उन्होंने ही दुनिया को प्रयोग करना सिखाया है, उससे पहले प्रयोगात्मक विज्ञान होता ही नहीं था और अगर हिन्दुस्थान में कोई वैज्ञानिक हुआ करता था तो वह ज्यादा से ज्यादा ‘थ्योरीटिशियन‘ था, जिसने जीरो का आविष्कार कर लिया, ‘इनफिनिटी‘ का आविष्कार कर लिया, भास्कराचार्य ने कुछ गणित के सूत्र निकाल लिए, इसके अलावा प्रायोगिक विज्ञान तो पश्चिम से आया, यह एक निरा भ्रम है। भारत के प्रख्यात वैज्ञानिक आचार्य पी.सी. राय लिखते हैं- विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण संस्था रायल सोसायटी की १६६२ में जब स्थापना हुई तो उसके संस्थापक बायल हुक, क्रिस्टोफर आदि का हॉब्स, लॉक आदि दार्शनिक ‘एक्सपेरिमेंटेरियन‘ कहकर मजाक उड़ाते थे और रायल सोसायटी में घंटों चर्चा का विषय रहता था कि मरी मछली भारी होती है या जिन्दा।

दूसरी ओर भारतवर्ष में क्या हालत थी, इसका उल्लेख करते हुए आचार्य राय उदाहरण देते हैं। हिन्दू रसायन शास्त्र संबंधी दो पुस्तकें हैं। एक रसेन्द्र चिंतामणि तथा दूसरी रसप्रकाश सुधाकर। ये पुस्तकें १३-१४वीं सदी में उत्पन्न रसायन शास्त्री रामचन्द्र तथा यशोधर ने लिखी हैं। इसमें रामचन्द्र कहते हैं, ‘मैंने जो कुछ विद्वानों से सुना है और शास्त्रों में पढ़ा है, पर जिसको मैंने स्वयं प्रयोग द्वारा सिद्ध नहीं किया, उसे मैंने इस पुस्तक में नहीं लिखा है। दूसरी ओर अपने अध्यापकों के योग्य मार्गदर्शन में मैंने अपने स्वयं के हाथों से प्रयोग कर जो सिद्ध किया है केवल वही मैंने इसमें लिखा है।‘

आगे रामचन्द्र कहते हैं, ‘वास्तविक अध्यापक वह है, जो पढ़ाए हुए विषय को प्रत्यक्ष प्रयोग द्वारा सिद्ध करे और छात्र वह है जो उसे पुन: सिद्ध करे। जो ऐसा करते हैं, वे ही वास्तविक अध्यापक तथा छात्र हैं, बाकी सब तो नाटक के पात्र के समान हैं।‘

तेरहवीं सदी में ही हुए यशोधर ने भी अपने ग्रंथ रस प्रकाश सुधाकर में यही व्यक्त किया कि-

स्वहस्तेन कृतं सम्यक्‌ जारणं न श्रुतं मया।
स्वहस्तेन भवयोगेन कृतं सम्यक्‌ श्रुतेन हि॥
धातुबन्धस्तृतीयोऽसौ स्वहस्तेन कृतो मया॥
दृष्ट प्रत्यय योगोऽयं कथितोना च संशय:॥ ( रस प्रकाश सुधाकर )

अर्थात- जारण को मैंने केवल सुना नहीं अपितु अपने हाथ से भलीभांति किया है। पूर्वश्रुत ज्ञान के आधार पर सांसारिक पदार्थों के योग से मैंने अपने हाथ से भलीभांति प्रयोग किया है। तत्पश्चात्‌ वह तृतीय धातुरचना मैंने स्वयं ही (अपने हाथ से) सिद्ध की।

२. हमारे यहां जितने संगीत के उपकरण बने, वे सब प्रायोगिक विज्ञान के नमूने हैं। ये मात्र तात्विक या सैद्धान्तिक विश्लेषण नहीं थे, अपितु निरीक्षण, परीक्षण और प्रयोगों की प्रक्रिया से उद्भूत हुए थे। संगीत के वाद्य ध्वनि की उत्पत्ति, उसके प्रकार, प्रभाव आदि के विश्लेषण और उसके प्रयोग की गाथा है। किस प्रकार की प्रयोगशीलता से इनकी निर्मिति हुई, इसका नमूना है भरत मुनि रचित नाट्यशास्त्र। भरत मुनि के इस ग्रंथ के ३३वें अध्याय में मृदंग और अन्य वाद्य कैसे बने, इसका वर्णन किया गया है। प्राचीन समय में एक गुरुकुल में स्वाति नामक मुनि रहते थे। एक दिन गुरुकुल में अध्ययन अवकाश था और पानी का अभाव था। अत: स्वाति मुनि पानी के लिए निकले। चलते-चलते एक जलाशय के पास पहुंचे। जलाशय में कमल खिले हुए थे। उसके पत्ते तालाब में फैले हुए थे। अचानक बादल घिरे और हवा जोर से चलने लगी और जोरों की वर्षा हुई। पानी की धाराएं धरती पर चारों ओर गिरने लगीं। इन पानी की धाराओं के पत्तों पर गिरने से एक मधुर ध्वनि निकलने लगी। स्वाति मुनि आश्चर्यचकित हो देखने लगे और पत्तों पर पानी गिरने से उत्पन्न मधुर ध्वनि को मंत्रमुग्ध होकर सुनने लगे। जब उसका निरीक्षण करने लगे तो ध्यान में आया कि पत्ते भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं, कुछ बड़े हैं, कुछ मध्यम हैं और कुछ छोटे हैं। पत्तों के भिन्न-भिन्न आकार के कारण उन पर गिर रहे पानी से निकलने वाली ध्वनि भी भिन्न-भिन्न थी। बड़े पत्तों से गंभीर ध्वनि निकल रही थी। मध्यम पत्तो से मधुर तथा छोटे पत्तों से हृदय स्पर्शी ध्वनि उद्भूत हो रही थी। इस दृश्य और ध्वनि से वे एकाकार हो गये और गहरे विचार और अनुभूति में डूबे मुनि इन ध्वनियों को अपने हृदय में अनुभव करते हुए उन छोटे, मध्यम और बड़े पत्तों को अपने हाथ में लिए आश्रम लौटे और फिर कृत्रिम रूप से वैसी ध्वनि उत्पन्न करने हेतु प्रयोग प्रारंभ किये। उस हेतु पत्तों पर पानी की धार, फिर धीरे-धीरे अन्य साधनों से उसे उत्पन्न करना और इस प्रक्रिया में मृदंग, प्रणव, और दर्दुर मुरज आदि वाद्य यंत्रों का आविष्कार हुआ। ये उदाहरण बताते हैं कि भारत में अंधश्रद्धा प्रमाण से ऊपर तर्क को स्थान रहा। विचारों को पूर्ण स्वतंत्रता तथा प्रत्यक्ष प्रयोग करने की परंपरा उस काल से है, जब पश्चिमी जगत में इसकी कल्पना करना स्वप्न में भी संभव नहीं था। अत: अपने देश की वैज्ञानिक परम्पराओं से आज की पीढ़ी को परिचित कराना वह माध्यम है, जिससे देश परानुकरण और हीनताबोध की ग्रंथि से मुक्त होकर स्वावलंबन व स्वाभिमान की अनुभूति कर सकता है।

(क्रमश:)